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________________ १६] नियमसार एदे छद्दव्वारिण य, कालं मोत्तूरण प्रथिकाय त्ति । गिद्दिट्ठा जिगसमये, काया हु बहुप्पसतं ॥३४॥ एतानि षड्द्रयाणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति । निर्दिष्टा जिनसमये कायाः खलु बहुप्रदेशत्वम् ॥३४॥ काल द्रब्य छोड़ करके द्रव्य शेष हो। कहलाते प्रस्तिकाय पोर काल अस्ति ही ।। जिनदेव के शासन में पांच काय कहाये 1 क्योंकि ये बहु प्रदेश रूप शास्त्र में गाये ।।३४।। अत्र कालद्रव्यमन्तरेण पूर्वोक्तद्रव्याण्येवपञ्चास्तिकाया भवतीत्युक्तम् । इह हि द्वितीयादिप्रदेशरहितः कालः, 'समओ अप्पदेशो' इति वचनात् । अस्य हि द्रष्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां फायत्वमस्त्येव । बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः । काया इव कायाः। -- - भावार्थ-यह छह द्रव्यों का विवरण भव्य जीवों को मुक्ति प्रदान करे । अभिप्राय यह है कि भव्यजीव इन द्रव्यों के विवरण को समझकर उन पर दृढ़ श्रद्धान करेंगे तभी वे रत्नत्रय से सहित होकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा नहीं । गाथा ३४ अन्वयार्थ— [ कालं मुक्त्वा ] काल द्रव्य को छोड़कर [ एतानि षट् द्रव्याणि च ] ये छहों द्रव्य [ अस्तिकायाः ] अस्तिकाय [ इति जिनसमये निर्दिष्टा ] इसप्रकार | से जिन शासन में कहे गये हैं [ बहुप्रवेशत्वं खलु कायाः] क्योंकि निश्चित रूप से बहुप्रदेशी को 'काय' यह संज्ञा है । टोका-यहां पर काल द्रव्य के बिना पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय होते हैं । ऐसा कहा है । यहां-विश्व में द्वितीय आदि प्रदेशों से रहित काल द्रव्य होता है। "समयकाल अप्रदेशी है' ऐसा वचन है। इस काल को द्रव्यत्व ही है, शेष पांचों द्रव्यों को | १. प्रवचनसार गाथा १३८ । i. hirihimara..MINS! Mars- antic - -
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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