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________________ 햐 जीव अधिकार ( अनुष्टुभ् ) सहजज्ञानसाम्राज्य सर्वस्वं शुद्ध चिन्मयम् । ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम् ||२२|| तह दंसरगउवप्रोगो, ससहावेदरवियप्पदो दुविहो । केवल मंदिर हिय, असहायं तं सहावमिवि भणिद ||१३|| तथा वर्शनोपयोगः स्वस्वभावतरविकन्पतो द्विविधः । केवलमिन्द्रियरहितं श्रसहायं तत् स्वभाव इति भणितः ।। १३ ॥ 5: उसही तरह यह दर्शनोपयोग द्विविध है । स्वभाव दरश श्री विभावदर्श कथित है || इन्द्रिय रहित मतीन्द्रिय प्रसहाय जो रहे । उस ही स्वभावदर्श को केवलदरस कहें ।। १३ ॥ [ ३७ दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत् । यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा । स्वभावदर्शनोपयोगो विभावदर्शनोपयोगश्च । स्वभावोऽपि स्वाभाविक अवस्था प्रगट हो गई है जो अंतर्मुख- श्रात्मा के अंतरंग में प्रगट है, सहज विलास रूम चिच्चमत्कार मात्र अपनी ग्रात्मा में लीन है- तन्मय है, जिसने अपनी ज्योति से सम्पूर्ण अंधकार अवस्था को नष्ट कर दिया है और जो नित्य ही सुन्दर है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में कर्म रहित अवस्था में जयशील हो रहा है । (२२) श्लोकार्थ - सहज-स्वाभाविक ज्ञानरूपी साम्राज्य ही जिसका सर्वस्व है, ऐसे शुद्ध चैतन्यमय अपने श्रात्मा को जानकर मैं निर्विकल्प होऊँ । गाथा - १३ अन्वयार्थ – [ तथा ] उसीप्रकार [ दर्शनोपयोगः ] दर्शनोपयोग [ स्वस्थ - भावेतर विकल्पतः ] अपने स्वभाव और विभाव के भेद से [ द्विविधः ] दो प्रकार का है । [ केवलं ] जो केवल [ इन्द्रियरहितं ] इन्द्रियों से रहित और [ असहाय ] असहाय है [ तत्स्वभावः इति मस्तिः ] वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है । टीका - यह दर्शनोपयोग के स्वरूप का कथन है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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