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________________ - - - - ३६ ] नियमसार ( शार्दू मतियोडिट ! शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद् द्वेषाम्भ:परिपूर्णमान सघटप्रध्वंसनात्पावनम् । ज्ञानज्योतिरनुत्तम निरुपघि प्रव्यक्ति नित्योदितं भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्धं जगन्मंगलम् ॥२०॥ ( मंदाक्रांता) मोक्षे मोक्षे अयति सहजज्ञानमानन्दतानं निर्लाबाचं स्फुटितसहजावस्थमन्तर्मुखं च । लीनं स्वस्मिन्सहजविलसचिचचमत्कारमात्रे स्वस्य ज्योति प्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम् ॥२१॥ -. . - - - - - (२०) श्लोकार्थ-प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त राग का बिलय हो जाने से, मोह का जड़ मल से नाश हो जाने से तथा द्वेष रूपी जल से परिपूर्ण-भरे हये मन रूपी घट के प्रध्वंस हो जाने से-फट जाने से पवित्र, सर्वश्रेष्ठ, उपाधिरहित, नित्य उदयरूप ऐसी ज्ञान ज्योति प्रगट होती है जो कि भेदज्ञान रूपी वृक्ष का उत्तम फल है, जगत् में मंगलरूप है और वंद्य है-सभी से वंदनीय है। मावार्थ-मोह, राग और द्वेष के निर्मूल विनाश हो जाने से केवलज्ञानरूपी परम ज्योति प्रगट होती है यह कर्मों को उपाधि से रहित जगत् में सर्वोत्तम है, सदैव ही उदयरूप है, कर्मरूपी बादल अब कभी इसे ढक नहीं सकते हैं इस केवल ज्ञान का मूल भेद विज्ञान है इस भेद विज्ञान रूप वृक्ष से यह केवलज्ञान रूप फल उत्पन्न होता है । यह केवलज्ञान जगत् में सभी प्राणियों के लिये मंगल है और पूज्य है अतः सर्वप्रयत्न करके सम्यक्त्व रूपी बीज को संयम रूपी भुमि में बो कर तपरूपी जल से सिंचित करते हुये भेदज्ञान रूपी वृक्ष को बढ़ाना चाहिये तब इस वृक्ष से केवलज्ञान रूप फल को प्राप्त कर सकेंगे यहां यह अभिप्राय हुआ ! (२१) लोकार्थ-पानन्द से तन्मय-ग्रानन्दस्वरूप, अव्याबाध-बाधाओं से रहित ऐसा सहज-स्वाभाविकज्ञान मोक्षे-मोक्ष में जयशील हो रहा है जिसकी सहज
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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