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________________ ८६] नियमसार स्थितिहेतुविशेषगुणः । प्रस्येव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति । आकाशस्यावकाशवानलक्षणमेव विशेषगुणः । इतरे धर्माधर्मयोगुणाः स्वस्यापि सदृशा इत्यर्थः । लोकाकाशधर्माधर्माणां समासप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति । - प्रमाण वाले होने पर भी प्रलोकाकाश को ह्रस्वपना-छोटापना नहीं होता है । विशेषार्थ---यह धर्म द्रव्य स्वयं तो किया हीन निष्क्रिय द्रव्य है 'निष्क्रियाणि च'- धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं और निष्क्रिय हैं ऐसा वचन है फिर भी ये धर्म-अधर्म दोनों द्रव्य जीव और पुद्गलों को स्वभाव तथा विभावरूप दोनों प्रकार की ही गमन क्रियायों में और दोनों प्रकार की ही स्थिति क्रियाओं में हेतु होते हैं। ये उदासीन हेतु मात्र में विवक्षित हैं प्रेरक हेतु नहीं है। __ सबसे प्रथम टीकाकार ने अयोगके बली की जो कर्मों से छूटकर लोक के अग्रभाग में जाने रूप गति होती है । उसे धर्मद्रव्य की गति में उदाहरण रूप से लिया है। सिद्धों की वह गति स्वाभाविक मानी गई है । "जीवो उव प्रोगमयो अमृत्ति कत्ता सदेह परिणामो। भोत्ता संसारस्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।। २ ।।" गाचार्य- यह जीव है, उपयोगमयी है, अमूत्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिणाम वाला है, भोता है, संसारो है, सिद्ध है और स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । अर्थात् इस जीव का स्वभाव उर्वगमन करने का ही है। तभी तो कर्मों से छूटते हुए ऊर्ध्वगमन कर जाता है और लोक के आगे धर्म द्रव्य के न होने से ही वहां पर अग्रभाग में ठहर जाता है 1 "धर्मास्तिकायाभावात्' ऐसा सूत्र है। __ अनन्तर टीकाकार ने इस धर्म द्रव्य के कतिपय प्रमुख-प्रमुख गुणों को भी बता दिया है। आगे अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य के विशेष लक्षण को बताकर कह दिया है कि बाकी के सभी गुण तीनों द्रव्यों में समान ही हैं। ये धर्म अधर्म दो द्रव्य १. तत्त्वार्थ मूत्र घ. ५ सूत्र । २. द्रव्यसंग्रह । ३. तन्वायसूत्र अ. १० सूत्र |
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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