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नियमसार प्रतिक्रमण नाम के सूत्रों में, जैसा वणित है प्रतिक्रमण । इस युग में श्री गौतम स्वामी, द्वारा विरचित वह प्रतिक्रमण ॥ उनको वैसे ही जान पुन: जो उसको भाते रहते हैं ।
उनके ही प्रतिक्रमण होता, जो उभय प्रतिक्रम करते हैं ।।१४।।
अत्र व्यवहारप्रतिक्रमणस्य सफलत्वमुक्तम् । यथा हि निर्यापकाचार्यः समस्तागमसारासारविचारचारुचातुर्यगुणकदम्बकैः प्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्कमणं, तथा जात्या जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंचविमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहरू परमगुरुचरणस्मरशासविता तामा लतिका शयनीति !
- - प्रकार से जानकर [ यः भावयति ] जो साधु उसको भाता है [ तस्य तदा प्रतिक्रम भवति ] उस साधु के उस काल में प्रतिक्रमण होता है ।
टोका-यहां पर व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता को कहा है।
__ संपूर्ण आगमज्ञान से सारासार विचार में श्रेष्ठ चतुरता आदि गुण समूह के धारक ऐसे निर्यापकाचार्यों के द्वारा द्रव्यश्चत रूप प्रतिक्रमण नामक सूत्रों में प्रतिक्रम का जैसे अतिविस्तार से वर्णन किया गया है बसे ही उसको जानकर जिनेन्द्रभगबार की नीति का उलंघन न करते हुए उत्तम चारित्र को मूर्तिस्वरूप ऐसे मुनि राज सकर संयम की भावना को करते हैं, बाह्यप्रपंचों से विमुख पंचेन्द्रिय के विस्तार से राय देहमात्र परिग्रह को धारण करने वाले और परमगुरु के चरणों के स्मरण में अनुर चित्तवाले ऐसे उन महामुनि के उसकाल में प्रतिक्रमण होता है ऐसा समझना।।
विशेषार्थ-यहां पर प्रतिक्रमणदण्डक के उच्चारण में जो निर्यापकाचार्य वर्णन है उसके विषय में सल्लेखना कराने वाले निर्यापकों के अतिरिक्त अन्य। निर्यापक कहलाते हैं ऐसा प्रवचनसार में कहा है--
"लिंगरगहणे तेसिं गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि । छेदेसूबट्ठवगा सेस्सा णिज्जावगा समणा ॥२१०॥"
१. प्रवचनमार पृ. ५०७ ।