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________________ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार [ २४६ गाथार्थ - लिंग ग्रहण - दीक्षाग्रहण के समय जो दीक्षादायक हैं वह उनके दीक्षा गुरु हैं और छेदद्वय में उपस्थापक हैं वे श्रमण निर्यापक हैं । प्रवज्यादायक के समान ही अन्य भी निर्यापक संज्ञक गुरु हैं। दीक्षादायक गुरु दीक्षागुरु हैं, शेष श्रमण निर्यापक हैं वे शिक्षा गुरु हैं । एक देशव्रत में या सर्वदेश व्रत में छेद होने पर प्रायश्चित्त देकर संवरण करते हैं वे निर्यापक शिक्षागुरु हैं और श्रुत हैं । वर्तमान में जो देवसिक, पाक्षिक प्रतिक्रमण के मूत्र हैं वे श्री गौतमगणधर द्वारा रचित हैं ऐसा कथन श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने किया । दूसरी बात यह है कि "जो पाक्षिक प्रतिक्रमण है तथा चातुर्मासिक और संवत्सरिक और उत्तमार्थं प्रतिक्रमण हैं उनमें बहुत से पाठ ऐसे हैं जो आचार्य और सर्व शिष्यगण मिलकर करते हैं । कुछ पाठ ऐसे हैं जो केवल शिष्यवर्ग ही पड़ते हैं और बहुत से दण्डव पाठ वे हैं जिन्हें केवल आचार्य ही पढ़ते हैं शेष सभी मुनि आदि शिष्यगण ध्यान मुद्रा से बैठे हुए श्रवण करते हैं यहां पर ऐसी विवक्षा है । " यहां पर जो "जिननीति अलंघन्" ऐसा पाठ है उसका अर्थ यह है कि जितेंद्रदेव का वर्तमान के साधुओं के लिए समय-समय पर प्रतिक्रमण करने का जो आदेश है उसे पालन करना ही चाहिए। यथा -- " " आजकल के साधु दुःषम काल के निमित्त से वक्र और जड़ स्वभाव वाले हैं, स्वयं भी किये हुये व्रतों के अतिचारों का स्मरण नहीं रख पाते हैं और चंचलचित्त होने से प्रायः बार-बार अपराध करते हैं । इसलिये ईर्यापथ दैवसिक आदि प्रसंगों में दोष होवं या न होवें किन्तु उन साधुओं को सर्वातिचार की विशुद्धि के लिये सभी प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करना ही चाहिए | उनमें से जिस किसी में भी वित्त स्थिर हो जाता है तो संपूर्ण दोषों का विशोधन हो जाता है । कहा भी है- "" आदि जिनेन्द्र और अंतिम जिनेन्द्र के समय ( शासन ) के शिष्यों को यथासमय प्रतिक्रमण करना ही चाहिए चाहे दोप होवें या न होवें किन्तु मध्यम २२ तीर्थंकरों के शिष्यों के लिये अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण का आदेश है । " १. अनगार धर्मामृत पृ. ५८२, ५८३ । २. सप्रतिक्रमणो धर्मो जिनयोरादिमान्त्ययोः । श्रपराधे प्रतिक्रांतिर्मध्यमाना जिनेविनाम् || अनगार धर्मामृत पृ. ५८३ ।। 2
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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