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निपपात किम
( आर्या )
को नाम यक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् । निजमहिमानं जानन् गुरुचररणसमच्चनासमुद्भूतम् ॥ १३२ ॥
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वाले निर्मल सुखरूपी अमृत को पीकरके जो सुकुतात्मा गुण्यात्मा इससमय इस मुकुन पुष्य को भी छोड़कर प्रगटरूप से अद्वितीय और अतुल ऐसे चिन्मात्र चिंतामणि को प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ -- लोक में चिनामणि रत्न चितित वस्तु को देने वाला होता है वैसे ही यह चिन्मात्र चिन्तामणि रत्नस्वरूप आत्मा अपने इस देह रूपी देवालय में विराज'मान है, जो उसको प्राप्त करते हैं उनको सम्पूर्ण अलौकिक अचिन्त्य ऐसे अनन्तगुण रूप फल मिल जाते हैं, पुनः चितित की तो बात ही क्या है ? वे पुण्यात्मा पुण्य की राशिस्वरूप हैं फिर भी पुण्य को छोड़कर ऐगे फल को प्राप्त करत है अर्थात् पुण्य पापी सभी कर्मों के निरोध से हो पूर्णतया कमों की निर्जग होकर मोक्ष होता है, यह पुण्य का छूटना वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयध्यान में ही होता है उसके पूर्व नहीं ।
( १३२ ) श्लोकार्थ - गुरु के चरणों की सम्यक्प्रकार अर्चना से उत्पन्न हुई ऐसी निजमहिमा को जानते हुए कौन विद्वान ऐसा कहता है कि यह परद्रव्य मेरा ही है ? अर्थात् कोई भी विद्वान् ऐसा नहीं कहना है, अज्ञानी ही कहते हैं ।
भावार्थ - वास्तव में गुरुदेव के चरणकमलों की उपासना से ही अपने आत्मनहीं लेते हैं वे शास्त्र के जाते हैं । गुरुपरम्परागत प्रयत्नों का अभ्यास सीखने
स्वरूप का सही बोध होता है, जो गुरुचरणों का आश्रय सच्चे मर्म को न समझकर एकान्त मे निश्चयाभासी वन अर्थ को समझने के लिये और आत्मतत्त्व को प्राप्त करने के के लिये गुरुओं का आश्रय लेना चाहिये | और तो क्या ? तीर्थकर भी पूर्वभवों में गुरु के पादमूल में दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों आदि का अध्ययन कर तथा गुरुमों के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। गुरुओं के पादमूल के अतिरिक्त तीर्थंकर प्रकृति का बंध और क्षायिक सम्यक्व हो नहीं सकते हैं ऐसा नियम है । गुरुओं के आश्रम की अचिन्त्य महिमा है ।