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________________ I २६२ ] 1 नियममाय पयडिट्टिदिश्रणुभाग पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा | सोहं इदि चितिज्जो, तत्थेव य कुरादि थिरभावं ॥ ६८ ॥ आत्मा । प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशबंध विवजित सोहमिति चितयन् तच च करोति स्थिरभावम् ॥६८॥ उन बंधों से शून्य, सोही मैं हूं नित्य उसमें ही थिर भाव, प्रकृति स्थिति अनुभाग, और प्रदेश कहाये । श्रात्मा शुद्ध कहा ये 11 ऐसा चिन्तन करते ने साधू निन धरते ||८|| अत्र बन्धनिर्मुक्तमात्मानं भावयेदिति भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । शुभाशुभमनोवाक्कायकर्मभिः प्रकृतिप्रदेशबंधौ स्याताम् चतुभिः कषायैः स्थित्यनुभागबन्धौ स्तः, एभिश्चतुभिर्बन्धनिर्मुक्तः सदानिरुपाधिस्वरूपो ह्यात्मा सोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति । गाथा ६८ ग्रन्वयार्थ – [ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशबंध : विवर्जितः ] प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध इन बंधों से रहित. [ आत्मा ] जो आत्मा है, [ सः महं] वह मैं हूँ. [ इति चितयन् ] ऐसा चितवन करते हुए ज्ञानी [ तत्र एव च ] उसी आत्मा में [ स्थिरभावं ] स्थिर भाव को [ करोति ] करता है । टीका-संघ से निर्मुक्त आत्मा की भावना करना चाहिये, इसप्रकार भव्य को यहां शिक्षा दी है 1 शुभ तथा अशुभ मन, वचन और काय सम्बन्धी क्रियाओं से प्रकृतिबंध और प्रदेदान्त्र होते हैं तथा चार कषायों से स्थितिबंध और अनुभागबन्ध होते हैं, इसप्रकार के बंधों से रहित सदा उपाधिरहित स्वरूपवाला ही जो आत्मा है वह मैं हूं इसप्रकार से सम्यग्ज्ञानी को निरन्तर भावना करनी चाहिए । [ अब टीकाकार चिच्चमत्कार मात्र में बुद्धि लगाने का उपदेश देते हुए कहते है ]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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