________________
१२
अपने पाहू ग्रन्थों में से चारित्रपाहड़ में भी कम कहा है
गाथा २१ वीं में है "सागार घोर निरागार - अनगार के भेद से संयमवरण दो प्रकार का है। उनमें से सागार चारित्र परिग्रह सहित श्रावक के होता है और निरागार चारित्र परिग्रह रहित मुनि के होता है । पुनः दर्शन व्रतमादिक से श्रावकों के ग्यारह भेद किये हैं | मनंतर भागे क्रम कहा है
एवं साधम्मं संगमचरणं उदेसियं सयलं । सुद्ध संजमचरणं अधम्मं निश्कलं बोछे ||२७|
इसप्रकार श्रायकधर्मरूप संयमचरण का निरूपण किया, अब मागे प्रतिधर्मरूप, सबल शुद्ध घीर मिध्यस संयमचरण का निरूपण करूंगा। इसके बाद मुनिधर्म का स्वरूप कहते हैं
पंचेंद्रियों का दमन, पांच महाव्रत इनकी पस्वांस भावनायें पांच समितियां और तीन गुप्तियां यह निरागार संयमचरण चारित्र है ।
इसका अर्थ यही हुआ कि श्रावकधर्म के बाद मुनिधर्म धारण करने के अनंतर ही निश्चयचारित्र होता है ।
द्वादशानुप्रेक्षाग्रन्थ में संवर श्रनुप्रेक्षा में कम बताश है
सुजोगस्स पवितो संवरणं, कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स गिरोहो, सुद्युवगेण संभवदि ॥ ६३॥
सुढ बजोगेण पुणी धम्मं सुक्कं च होति जीवस्स ।
1
शुभयोगको प्रवृत्ति अशुभयोग का वर करती है और शुद्धोपयोग द्वारा शुभयोग का निरोध जाता है। शुद्ध से जीव के भ्रमंध्यान और शुक्लध्यान होते हैं |
मूलाबार ने सात अध्याय तक गुप्तगुर सामाचार, पंचाचार, पिश्णुद्धि, प्रावश्यक प्रकरण प्रादि द्वारा व्यवहारचरित्र को बतलाकर नंतर प्रार्थी अधिकार में धनुप्रेक्षा नवमें में पनगार भावना और समा अधिकार में मातम भावना प्रधान कहते है।
प्राकृत भने तो अतिरागकी प्रधानता होने से व्यवहार क्रियायें उन्हें कितनी अधिक प्रिय थीं। श्री कुंकुदेव स्वयं भक्ति करते थे। को उपादेयता सिद्ध हो जाती है। एक मुनि बार विहार पादि करते हैं तब तक उन्हें पाश्यक किपायें चि से करना नाहिये ।
भक्ति में स्वयं श्री कृदकुदेव ने अपने भक्तिय को व्यक्त किया है।