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पुन: दूसरी पाषा की सस्थानिका में कहा है
भ्यवहारमोक्षमार्गसाध्यमावेन मिश्वयमोक्षमार्गोपन्यासोऽपाए । “मितरामुपपन्नः।" इसलिये निाचय-व्यवहारमोक्षमार्ग से साध्यसाधन भाव अच्छी तरह से सिद्ध हो गया है।
प्रवचनसार ग्रन्थ में तो सृतीय पारिवाधिकार में सर्वप्रथम मुनिदीक्षा लेने की ही विधि बताते हैं । ये कहते हैं
___ "जो मुनि होना चाहता है वह सर्व प्रथम अपने बंधुवर्ग से पूछकर, पंचाचार से सहित प्राचार्य के पास 'पहुंचकर उन्हें प्रणाम कर उनसे दीक्षा की याचना करे। उस दीक्षा में केशलोंच करके नग्न मुद्रा पारी होकर पांच महावत पादि भट्ठाईस मूलगुण धारण करे।"
"मागम में मुनि शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ऐसे दो प्रकार के हैं। उनमें से शुद्धोपयोगी प्रानब से रहित हैं और शुभोपयोगी प्रानर से सहित है। यहाँ शुद्धोपयोगी मुनि १२ गुण स्थानवर्ती लिये गये हैं।'' पुनः गाचा ४६ से लेकर ७२ तक शुभोपयोगो मुनि की चर्या बतलाई है । प्रागे गाथा ७३-७४ में शुद्धोपयोगी का लक्षण किया है : शुभोपयोगी मुनि की चर्या का एक उदाहरगा देखिरी
वसणणाएवरेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि ।
चरिया य सरागाणं, जिणिवपूजोबदेसो य ॥४॥ दर्शन शान का उपदेश देना शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोपण करना, तथा जिनेंद्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह गब सराम चर्या अर्थात शुभोपयोगी मुनियों को प्रवृत्ति है।
समयमार में भी मूल गाथा में सर्वप्रथम भेवरूप व्यवहाररत्नत्रय पुनः अभेदरूप निश्चयान्न अन्य धारण करने का उपदेश है। यथा
सणणाणचरित्तणि सेविवस्वाणि साहष्णा णिच्छ । ताणि पुण जाण तिष्णिवि अपाणं घेव णिसापको॥१६॥
साथ के द्वारा दान , जान मोर चारित्र ये नित्य ही मेवन करने योग्य है । पुनः इन तीनों निश्चय से मात्मा ही ममझो । प्रगति प्रथम तीनों को एक पृथव धारण करना चाहिये पुन: निश्चयनय से : तोगोंरूप या-म को माराधना मना चाहिये ।
१ प्रवचनसार अधिकार ३, गाथा १ मे ।
गाया ४५