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________________ ३३० नियममार ( उपेन्द्रवज्ञा) नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् । विभुतिकोताररूसोल्यमूल विनष्टसंसार द्रुमूलमेतत् ।।१८८।। तारणंतभवेण' समज्जिअसुहासुहकम्मसंदोहो । तवचरणेरण विरणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥११॥ अनन्तानन्तभवेन सजितशुभाशुभकर्मसंदोहः । तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ॥११॥ जो ही अनंतानंत भवा में मंचित किया गया है। शुभ वा अशुभ कर्म कसा भी गवन रूप भया है ।। वो सब तपश्चरण कर में, मूल नष्ट हो जाना। इसीलिये तप ही निश्च च मे प्रायश्चित कहाना ।।११।। - - - -- - - - - (१८८) श्लोकार्थ-मैं नित्य ही परमम्मनन्त्र को नमस्कार करता हूं जो कि मुनीन्द्रों के हृदय कमल की कणिका पर निवास करने वाला है. मक्तिरूपी कान्ता के रति सुख का मूल कारण है और संसाररूपी वृक्ष की जड़ को नष्ट करने वाला है। भावार्थ-इस परमात्मतत्त्व क. ध्यान मुनिजन ही कर सकते हैं, अन्यजन नहीं, इसलिये यह उनके मन के गोचर है तथा अतीन्द्रिय मुख का कारण है और संसार के दुःखों से मुक्त करने वाला है । गाथा ११८ अन्वयार्थ- [अनंतानंत भवेन] अनंतानंत भवा के द्वारा, [सजित शुभागमा कर्म संदोहः] उपाजित किया गया शुभ और अशुभरूप कर्म समूह, [ तपश्चरकन विनश्यति ] तपश्चरण से नष्ट हो जाता है, [तस्मात् तपः प्रायश्चित्तं] इसलिये तक प्रायश्चित्त है। १. भावेण (क) पाठान्तर
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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