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________________ संविधिसांगा शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित अधिकार [ ३३१ अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्तम् । आसंसारत एवं समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्द्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परम तपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् । टीका - प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख होकर के जो प्रतपन - प्रताप शील- प्रकाशमान होना है वह तम प्राचिन होता है यहां पर ऐसा कहा गया है। अनादि संसार से ही उपार्जित किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का जो समूह है जो कि द्रव्यकर्म और भावकर्मरूप है तथा द्रय, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पांच प्रकार के संसार के संवर्धन में समर्थ है, वह भग्यशुद्धि लक्षण वाले परम विलय को प्राप्त हो जाता है, इसलिये अपनी आत्मा के अनुष्ठान पर ही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित है ऐसा कहा है। तपश्चरण से निष्ठ परम विशेषार्थ - 'आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभव, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार और उपस्थापना इसप्रकार से प्रायश्चिन के नव भेद हैं, किन्तु यहां पर तप छेद, को मुख्यम् से लिया है अतः उसी को प्रायश्चित कह दिया है क्योंकि तप के वारह भेदों में से ही यह प्रायश्चिन सातवां भेद है तथा इन नव मंदा में भी एक तप भेद आ गया है । कारण यही है कि अनशन आदि के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है । इसलिए तप को ही अध्यात्म प्रायश्चित्त में घटित करते हुए कहते हैं कि आत्मा में प्रकर्षरूप से उपना, स्थिर रूप से निवास करना निश्चय तप है । वास्तव में शुद्ध आत्मा में निर्वि कल्प समाधिरूप स्थिति ही निश्चय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आदिरूप हैं ऐसा अर्थ है । ये प्रतिक्रमण प्रायश्चित भेद निर्विकल्प ध्यान में नहीं हैं वहां केवल एक अभेद अवस्था है ये व्यवहारनय से व्यवहार की अपेक्षा से ही कहे जाते हैं । १. "आलोचना प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युत्सर्गं तपश्छेत्र परिहारोपस्थापना : " [ तत्त्वार्थ सूत्र सु. २२ नवम प्र. ]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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