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________________ नियममार ( मंदाक्रांता) प्रायश्चित्त न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थ प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् । आसंसारादुपचितमहात्कर्मकान्तारवन्हि ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ॥१८॥ अप्पसरूवालंबरण, भावेण दु सम्वभावपरिहारं । सक्कदि कादु जीबो, तम्हा झाणं हवे सव्वं ॥११६॥ आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु सर्वभावपरिहारम् । शक्नोति कर्तु जोवस्तस्माद् ध्यानं भवेत् सर्वम् ।।११।। मुनी नि नानम के स्वरूप का अवलंबन ले धार । सभी विभाव हा भावां का त्याग स्वय कर गये ।। इगीलिये यह ध्यान विश्व में, बस सबम्ब कहाना । निर्विकल्प मुनि ही होते हैं स्वात्मतत्व के ध्याना ।।१६।। - - - - - - -- - . %D [ अब टीकाकार प्रायश्चित्त की विशेषता पर ही प्रकाश डालते हैं। कहते हैं ( १८६) श्लोकार्थ-अन्य कुछ क्रिया प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु कर्मक्षयः । लिए जो चिदानंदम्पी अमृत से परिपूर्ण तप है उसे ही साधुजन प्रायश्चिन कहते हैं, वह तप अनादिकाल में संसार में संचित किये कर्मरूपी महावन को जलाने के अग्निज्वाला का समह है, शमसुखमय है तथा मोक्ष लक्ष्मी से मिलने के लिये स्वरूप है। गाथा ११६ अन्वयार्थ-[ आत्मस्वरूपालम्बन भावेन तु ] आत्मस्वरूप के अवलम्बन भाव मे, [ जीवः ] जीव, [ सर्वभावपरिहारं ] सर्वभावों का परिहार, [. शक्नोति ] कर सकता है, [ तस्मात् ] इसलिए, [ सर्व ध्यानं भवेत् ] वह ध्यान होता है। ..----- :. -::.
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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