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________________ शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार [ ३३३ अत्र सकलभावानामभावं कर्तुं स्वात्माश्रयनिश्वयधम्यध्यानमेव समर्थमित्युक्तम् । अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्ण नित्यनिरावरण सहजपरम पारिणामिकभावभावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौ पशमिक क्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं कर्तुं मत्यासन्तभव्यजीवः समर्थो यस्मात् तत एव पापाटवीपायक इत्युक्तम् । अतः पंचमहाव्रत पंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यान प्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति । ( संदांता ) यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योतिः प्रतिहततमः पुरं जमाद्यन्तशून्यम् । ध्यात्वाज परमकल्या सार्धमानन्दमूर्ति जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयम्ाचारराशिः ॥ १६०॥ टीका सकल भावों का अभाव करने के लिए स्वात्मा के आश्रित निश्वय - धर्मध्यान ही समर्थ है, यहां पर ऐसा कहा है | अखिल परद्रव्यों के परित्याग लक्षण से लक्षित, अक्षुण्ण - अविच्छिन्न नित्य निरावरण सहज परम पारिणामिक भाव की भावना से औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन अन्य भावरूप चारों भावों का परिहार करने के लिये अतिनिकट भव्य जीव जिस हेतु से समर्थ है, उसी हेतु से वह पापरूपी वन के लिये पात्रक है ऐसा कहा गया है। इसलिये पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सभी ध्यान ही हैं, ऐसा समझना । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज ध्यान के फल को कहते हैं - ] ( १९० ) श्लोकार्थ - जिसने नित्य ज्योति से अंधकार पुंज का नाश कर दिया है जो आदि और अन्त से शून्य है जो परमकला के साथ आनन्द की मूर्तिस्वरूप है ऐसी एक शुद्ध आत्मा का जो शुद्धात्मा में अविचल मन वाला होता हुआ निरन्तर ध्यान करता है सो यह आचार की राशिस्वरूप शीघ्र ही जीवन्मुक्त हो जाता है । ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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