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________________ नियमसार २३८ ] त्रिकालनिरावरण नित्यानंदेकलक्षण निरंजन निजपरमपारिणामिकभावात्मक कारणपरमात्मा ह्यात्मा, तत्स्वरूप श्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्, एवं भगवत्परमात्मसुखाभिलाषी यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् श्रात्मानं भावयति स परमतपोधन एव निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः । ( वसंततिलका } त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी । शुद्धात्मनियतं निजबोधमेकं श्रद्धानमन्यदपरं चरण प्रपेदे ।।१२२ ॥ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप रत्नत्रय है, इनकी भी छोड़कर, त्रिकाल में निरावरण नित्य ही एक स्वरूप निरंजन निज परमपारिणामिक भावात्मक जो कारण परमात्मा है, यह आत्मा ही है। उसके स्वरूप का श्रद्धान, परिजान और उसी में आचरणस्वरूप ऐसा जो निश्चयरत्नत्रय है। इसप्रकार जो भगवान् परमात्मा के सुख के अभिलापी महामुनि परमपुरुषार्थ- मोक्ष पुरुषार्थ में तत्पर हुए उस शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप आत्मा की भावना करते हैं वे परम तपोधन ही निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं ऐसा कहा है । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चयरत्नत्रय में प्रेरित करते हुए श्लोक कहते हैं— ] ( १२२ ) श्लोकार्थ- संपूर्ण विभावभावों को और व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर जो निजतत्त्व का अनुभव करने वाला बुद्धिमान - साधु शुद्धात्मतत्त्व में नियत - निश्चित ऐसा जो एक निजबोध है, अन्यरूप-निश्चय श्रज्ञान है और अपरनिश्चयरूप जो चारित्र है उनको प्राप्त कर लेता है । - विशेषार्थ - यहां पर विभावभावों को छोड़ने का उपदेश दिया है वैसे ही। व्यवहाररत्नत्रय को भी छोड़ने का कथन है, क्योंकि उसको छोड़े बिना निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती है। किंतु इस पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है। कि व्यवहाररत्नत्रय छोड़ा नहीं जाता है किंतु निर्विकल्पध्यान की अवस्था में निश्चय
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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