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________________ म परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार गिरवसे सेरग । मिच्छादनापचरितं च सम्मत्तणाणचरणं, जो भावइ सो पडिक्कमरणं ॥ ६१ ॥ मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण । सम्यक्त्वज्ञानच रणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम् ||१|| मिथ्यादर्शन मिथ्यात्वज्ञान, मिथ्याचरित्र भय के कारण । इनको संपूर्णतया तजकर, जो करने अशुभ भाव वारण || जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित को निशदिन माने रहते हैं । ही प्रतिक्रमण कहते हैं, क्योंकि वे निज में रहते हैं ।। ६९ ।। [ २३७ श्रत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां नरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोनिश्चयप्रतिक्रमणं भवति इत्युक्तम् । भगवदर्हत्परमेश्वरमार्ग प्रतिकूल मार्गाभास मार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिमिथ्याज्ञानं, सन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च एतत्त्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक रत्नत्रयम् एतदपि त्यक्त्वा । , गाथा ६१ अन्वयार्थ -- [ मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रं ] मिथ्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को [ निरवशेषेण ] संपूर्ण रूप मे [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ सम्यक्त्वज्ञानचरणं ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को [ यः ] जो साधु [ भावयति ] भावित करता है, [सः प्रतिक्रमणं ] वह साधु प्रतिक्रमणरूप है | टीका — सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को संपूर्णतया स्वीकार करने से और मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र को परिपूर्णरूपतया त्याग करने से परम मुमुक्षु - महामुनि के निश्चयप्रतिक्रमण होता है, यहां पर ऐसा कथन किया है । भगवान् अर्हत परमेश्वर के मार्ग के प्रतिकूल जो मार्गाभास है उसमें मार्ग से श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है, उसी अवस्तु में वस्तु की वृद्धि होना मिथ्याज्ञान है, और उनके कथित मार्ग का आचरण करना मिथ्याचारित्र है, इन तीनों का संपूर्णरूप से त्याग करके अथवा अपने आत्मस्वरूप का श्रद्धान उसी का परिजान और उसी में अनुष्टानस्थिरता रूप से चारित्र ऐसे निश्चयरत्नत्रय मे विमुख होना ही मिथ्यादर्शन, !
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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