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________________ २३६ ] नियममार ( मालिनी ) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्व किमपि यचनमात्रं नि ते: कारणं यत् । तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।।१२।। (१२१) श्लोकार्थ-इस संसार समुद्र में डुबे हुये जीव ने पूर्व में निर्वाण के कारण रूप ऐसे कुछ भी जो वचनमात्र है उन वचनमात्र को भव भय में सुना है अथवा धारण भी किया है, किन्तु बड़े दुःग्य की बात है कि मर्वदा एक ज्ञानस्वरूप को । नही सुना है और न धारण ही किया है । भावार्थ- अर्थात् जिनवचन मात्र को भावों से रहित होकर इरा जीव ने सूना भी होगा और कुछ न कुछ अंग में धारण भी किया होगा किंतु मोक्ष के लिये साक्षात कारण से अभेद रत्नत्रय म्बमा एक अनाप ज्ञान को नहीं प्राप्त किया है। समयसार में कहा भी है "हि नस्य भेदनानरय मध्ये गानकवभेदनयेन वीनगगचारित्रं वीतरागसम्यक्त्वं च लभ्यते इति सम्यग्ज्ञानादव बंधनिराधसिद्धिः' ।" । उम भेदज्ञान में ठंडई के समान अभेदनय से बीनरागचारित्र और वीतराग- : सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, इसलिये राम्यग्ज्ञान से ही बंध के निरोध की सिद्धि हो । जाती है । अर्थात् जहां पर ज्ञानमात्र में बंध का अभाव होता है ऐसा कहा है वहां पर । उस ज्ञान के साथ वीतरागचारित्र और वीतरागसम्यक्त्व अविनाभावी हैं, मतलब वह निश्चयरत्नत्रयरूप अवस्था विशेष का ज्ञान है । यहां पर थी पद्मप्रभमल धारिदेव महामुनि को भी वही ज्ञान विवक्षित है। १. गाथा ७२, टीका जग्रसेनाचार्यकृत पृ० ११७ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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