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________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २६६ तथा हि-- (मालिनी) मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले । भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे न च न च भुवि कोप्यन्योस्ति मुक्त्य पदार्थः ।।१३५।। (पृथ्वी) क्वजिलगति निर्मल बधान बिलानिमतं क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् । तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायक सता हृदयपद्मसानि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६॥ उसीप्रकार मे-[टीकाकार मुनिराज उसी शुद्धात्म तत्त्व की विशेपना को दिखलाते हा दो श्लोक कहते हैं (१३५) श्लोकार्थ—मेरे सहज शुद्धदर्शन में, शुद्धज्ञान में, चारित्र में. पुण्य[पापरूपी कर्मद्वय के त्याग रूप-प्रत्याख्यान के समय में, संवर में और शुद्धयांग शद्धध्यान स्प शूद्धोपयोग में वह परमान्मा ही है, क्योंकि मुक्ति की प्राप्ति के लिये इस मंमार में अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है-नहीं है। भावार्थ-दीतराग निविकल्प गमाधिरूप ध्यान में लीन होने पर यह आत्मा ही कारण परमात्मा रूप से स्थित है, वही परमात्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, प्रत्याख्यान, संबर और ध्यान रूप है । क्योंकि वही उस समय निश्चय रत्नत्रय की एकाग्रय परिणति में परिणत हो रहा है । उस निश्चयरूप एकाग्र अवस्था में ही ये निश्चय वर्मनादि घटित होते हैं, अन्यत्र नहीं, इसीलिए इस आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी अनुष्ठान में मोक्ष की प्राप्ति असंभव है । (१३६) श्लोकार्थ-जो क्वचित्-कहीं पर-किसी अवस्था में निर्मल शोभित हो रहा है-दिग्वाई दे रहा है, कहीं पर निर्मलानिर्मल-उभय से मिश्रित रूप दिग्वाई रहा है, कहीं पर अनिर्मल-मलिन ही दिखाई दे रहा है, ऐसा जो यह आत्मा है वह
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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