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________________ नियममार २६८ ] तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ (अनुष्टुभ् ) "तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि वर्शनम् । चारित्रं न जलेकं स्यान तदेकं निर्मलं तपः ॥ नमस्यं च तदेवकं तदेवकं च मंगलम् । उत्तमं च तदेवकं तदेव शरणं सताम् ।। (अनुष्टुभ ) आचारश्च तदेवकं तदैवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।" -- -.- - - - - .. .. - --- पुनः वे स्वयं कह रहे हैं कि परमागमरूपी मकरन्द का झरना मेरे मुख से झर रहा है, ओहो ! सचमुच में उनके मुखरूपी कमल से परम सुगन्धि से युक्त यह नियमसार को टीका रूप अमृतमयी रस का झरना झरा है जो कि प्रत्येक भव्य जीवों की आत्मा को सुरभित और अजरामर करने वाला है, परमतृप्तिदायी है । धन्य हैं ये । टीकाकार मुनिराज जिन्होंने श्री कुन्दकुन्द देव की गाथा रूपी मूर्य की किरणों के सदश इस टीका रूपी किरणों के आलोक से भव्य जीवों के हृदयभुवन को आलोकित कर दिया है। उसी प्रकार से एकत्व सप्तति में भी कहा है "श्लोकार्थ—'वही एक-चतन्य ज्योति ही परमज्ञान है, बही एक पवित्र निमन्न दर्शन है, वही एक चारित्र है और वही एक निर्मल तप है। ___ श्लोकार्थ-सत्पुरुष-साधु पुरुषों के लिये वही एक नमस्कार करने योग्य है। वही एक मंगलरूप है, वही एक उत्तम है और वही एक शरणभूत है । श्लोकार्थ-अप्रमत्त योगी के लिये वही एक आचार है, वही आवश्यक क्रिया है और वही एक स्वाध्याय है । १. पदमनंदिपंचविशतिका के एकत्वसप्तनि अ. में श्लोक ३६, ४०, ४१ । LA
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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