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________________ 502 भाषानुवाद कत्रों की प्रशस्ति श्री महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके भगवान् महावीर का एकच्छन शासन ऐसे जैन धर्म की, जिनवाणी भारती की और सर्व साधुओं की सिद्धिफल की प्राप्ति के लिये मैं स्तुति करती हूं । श्री मूलसंघ में कुंदकु दाम्नाय प्रसिद्ध है, उसमें सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण है 1 उसमें जिनसूत्र से गुथी हुई ऐसी आचार्यों की परंपरारूप माला है । इस युग में उसी माला के एक मणिस्वरूप आचार्य श्री शांतिसागर महाराज हुये हैं । ये इस कलिकाल में मुनिमार्ग के दिखलाने वाले एक नेता थे। चारित्रचक्रवर्ती होते हुये भी अकिंचन दिगम्बर थे। उन्हीं के पट्ट पर चतुविध संघ के अधिनायक वीरसागर महाराज हुये हैं, ये मुझे महाव्रत की आर्यिका दीक्षा देने वाले मेरे दीक्षा गुरु सदा जयशील होवें । सो मैं इस जगत में 'ज्ञानमती' नाम से आर्यिका हूं। मैं सतत चारों अनुयोग रूपी समुद्र में अवगाहन करती रहती हूं । जिसका 'कष्ट महसी' दूसरा नाम है ऐसे 'अष्ट सहस्री' नामक न्याय ग्रंथ का मैंने मातृ भाषा में अनुवाद करके पश्चात् उस अध्यात्मग्रन्थ नियमसार का हिंदी अनुवाद किया है । वीर संवत् पच्चीस सौ दो ( २५०२ ) में, चैत्र कृष्णा नवमी जो कि ऋषभदेव का जन्म दिवस है इसलिये शुभ तिथि है उस पवित्र तिथि में, कुरुजांगल देश में स्थित हस्तिनापुर नामक तीर्थक्षेत्र पर श्री शांतिनाथ भगवान् के मन्दिर में इस 'नियमसार' शास्त्र का अनुवाद पूर्ण हुआ है । जब तक इस पृथ्वी तल पर सुख को देने वाला यह जैन धर्म रहेगा, तब तक इस जगत में अनुवाद सहित यह ग्रंथ विद्यमान रहे। यह ग्रंथ मुझे और पढ़ने वालों को भी स्वात्मसुखरूपी अमृत को देवे तथा शीघ्र ही बोधि - रत्नत्रय की प्राप्ति, समाधि और आत्यंतिक शांति को भी प्रदान करे । ॥ इति शं भूयात् ॥
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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