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________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार समा भाव त ोध जीतते, भर जीत मृदुता से । प्रार्जब से माया व लोभ को जीत संतोषहि से ।। निश्चय स चारों कषाय को जीत लिया जो मुनिवर । उनके ही निश्चय प्रायश्चित होता कर्म भरम हर ।।११५।। चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत् । जघन्यमध्यमोत्तमभेदारक्षमास्तिस्रो भवन्ति । अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां वासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा । अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति [ममकाहानिरिति] परमसमरसीभावस्थितिमत्तमा क्षमा । प्राभिः क्षमाभिः क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं माई वेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति । तथा चोक्त श्री गुणभद्रस्वामिभिः ---- - - .. ... .. संतोषेण] लोभ को सन्तोष से, [ चतुविधकषायात् ] इनप्रकार चनुविध कपायों को, खिलु जयति ] साधु निश्चितरूप से जीतते हैं । टीका-चार कषायों के विजय करने के उपाय के स्वरूप का यह कथन है । जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से क्षमा तीन प्रकार की होती हैं । बिना कारण अप्रिय वचन बोलने वाले मिथ्यादष्टि को अकारण ही मुझे त्रास देने का जो उद्योग है वह मेरे पुण्य से दूर हो गया ऐसा विचार करना पहली जघन्य क्षमा है । बिना कारण त्रास देने वाले का जो ताड़न करने, वध आदि करने का भाव है वह मेरे पुण्य से दूर हुआ ऐसा विचार करना दूसरी-मध्यम क्षमा है । वध होने पर अमूर्तिक परमब्रह्मस्वरूप ऐसे मेरी क्या हानि हुई ? अर्थात् कुछ भी नहीं इसप्रकार विचार कर परम समरसोभाब से स्थित रहना यह तीसरी उत्तम क्षमा है । इन क्षमारूप भावों से श्रोथ कपाय को जीतकर, मार्दव से मान कषाय को जीतकर, आर्जव से माया कषाय को जीतकर तथा परमतत्त्व के लाभ के द्वारा संतोष भाव से लोभ कषाय को जीतकर साधु चारों कषायों पर विजय करते हैं । उसीप्रकार से श्री गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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