________________
३२० ]
नियमसार
( शालिनी ) प्रायश्चित्तंह्य क्तमुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये
च
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ।।१८१॥
कोहं खमया मारणं, समद्दवेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं, जयदि खुए चहुविहकसाए ॥११५॥
क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च । संतोषेण च लोभं जयति वलु चतुविधकषायान् ।।११५ ।।
(१८१) श्लोकार्थ - मुनियों के काम कोवादि अन्य-परभावों के क्षय के होने में जो भात्र है अथवा अपने ज्ञान की जो नम्यक भावना है उसे अतिशय रूप से प्रायश्चित्त कहा गया है, सत्पुरुष आत्मप्रवाद पूर्व में ऐसा जानते हैं ।
भावार्थ – आत्मप्रवाद नामक सातवें पूर्व में प्रायश्चित का वर्णन पूर्णनया किया है । साधुजन उसी के आधार से प्रायश्चित का वर्णन करते हैं । व्रतादि में जो अतिचार या अनाचार आदि दोष होते हैं उससे आत्मा में मलीनता आती है, इसलिये उन किये हुये दोषों की शुद्धि के लिए उन दोषों को दूर करने के लिए गुरु से जो दण्ड ग्रहण किया जाता है जो कि आत्मा को पवित्र बनाने वाला है उसी का नाम प्रायश्चित है। यहां पर क्रोधादि विभाव परिणामों से आत्मा मलिन हो रही है उनके दूर करने में कारणभूत ऐसे निज गुणों का चितवन ही उत्तम प्रायश्चित्त माना है क्योंकि यही भाव आत्मा को पूर्णतया शुद्ध करने वाला है ।
गाथा ११५
अन्वयार्थ - [ क्रोधं क्षमया ] क्रोध को क्षमा से, [ मानं स्वमार्दवेन ] मान को निजमार्दव से, [ मायां च आर्जवेन ] माया को आर्जव से [ च ] और [ लोभ
१. जिगदि खु चत्तारि विकहाए ( क ) पाठान्तर