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________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार [ ३१६ कोहाविसगम्भावक्खयपहुविभावणाए रिणग्गहणं । पायच्छित्तं भरिणदं, णियगुराँचता य रिपच्छ्यवो ॥११४!! क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायो निग्रहणम् । प्रायश्चित्तं भणितं निमगुचिता च निश्चयतः ॥११॥ कोशदिक जो भाव स्वयं के वे विभाव कहलाते । उनके क्षय करने आदी में जो तत्र हो जाते ।। नया निजातम के अनंत गुण का चिंतन जो करते । उनक ही निश्चय प्रायश्चित्त कहा गया निश्चय मे ॥११४।। । इह हि सकलकर्मनिमूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम् । क्रोधादिनिखिलमोह पविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायां सत्यां निसर्गवृत्त्या विसमभिहितम्, अथवा परमात्मागुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानाविसहजअनिता प्रायश्चित्तं भवतीति । . - . - . --... . गाथा ११४ अन्वयार्थ--[ क्रोधादि स्वकीय भाव क्षय प्रभृति भावनायां ] क्रोध आदि कीय भावों के क्षयादि की भावना में [ निर्ग्रहणं ] रहना, [ निजगुण चिन्ता च ] र अपने गुणों का चितवन करना, [निश्चयतः] निश्चय से [ प्रायश्चितं भणितं ] चित्त कहा गया है। । टीका-सम्पूर्ण कर्मों के निर्मलन करने में समर्थ निश्चय प्रायश्चित्त का हो पर कथन है। क्रोधादि सम्पूर्ण मोह राग द्वेष रूप विभाव स्वभाव के क्षय करने में कारणत ऐसे निजकारण परमात्मा की भावना के होने पर नैसर्गिक वृत्ति से प्रायश्चित्त गया है, अथवा परमात्मा के गुणरूप, शुद्ध चैतन्य सत्त्व स्वरूप के सहज ज्ञान दर्शन दि सहज गुणों का चितवन करना प्रायश्चित्त होता है। । [अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुये श्लोक कहते हैं-]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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