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________________ ना 1!" ३१८ ] नियमसार श्रन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्त्ताः पापा: पापं विदधति मुहुः कि पुनश्चित्रमेतत् ॥ १८० ॥ पापों का क्षालन करके मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं और यदि मुनियों के अन्य चिता होती है तो वे मूढ़ कामदेव से पीड़ित हुए पापी पुनः पाप को संचित करते हैं, इसमें आश्चर्य हो क्या है ? भावार्थ -- अन्यत्र भी आचार्यों ने कहा है कि- "उत्तमा स्वात्मचिता स्यात् मोहचिता च मध्यमा । अत्रमा कामचिता स्यात् परचिता धमाधमा || " अर्थ- स्वात्मचिता उत्तम है, मोहचिता मध्यम है और काम आदि इन्द्रिय विषयों की चिता अधम है तथा परचिता अयम से भी अधम है । यहां पर टीकाकार ने स्वात्मचिता को ही प्रमुख कहा है क्योंकि वही उत्तम है और मोक्ष को प्राप्त कराने वाली है उसके अतिरिक्त अन्य चितायें कदाचित् आत्मतत्त्व की सिद्धि में साधक भी हैं कदाचित् बाधक भी हैं। चितवन आज्ञाविवय आदि चार प्रकार के या दश प्रकार के शुक्ल ध्यान के लिये सहायक सामग्री होने से मोक्ष का कारण माना गया है । पंच परमेष्ठी के गुणों का धर्म ध्यानों का चितवन "परे 'मोक्षहेतु ।" ऐसा सूत्रकार का कहना है, जबकि यह धर्म ध्यान पर के अवलम्बन रूप ही है । यहां पर जिस चिन्ता से योगी को पापी विमूढ़ आदि कहा है वे चिंताएं साधु पद के विरुद्ध विषय कषायरूप अथवा आर्तरौद्र ध्यानरूप हैं वे तो सर्वथा त्याज्य ही हैं । १. तत्त्वार्थ सूत्र नवम श्वः ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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