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________________ ना F मित्त से होते हैं इसलिए उन्हें कपंचित् भात्मा के कहने के लिये जयसेन प्राधि पाचार्यों ने निश्चयनय में शुद्ध और भगुर का विकल्प स्वीकृत किया है परन्तु कुन्दकुन्द महाराज विभाय को प्रात्मा का मानना स्वीकृत नहीं रसे, वे उसे व्यवहार का ही विषय मानते हैं । अमृतचंद्र मूरि ने भी इन्हीं का अनुसरण किया है । सम्यग्टुष्टि जीव वस्तु तत्व का परिज्ञान प्राप्त करने के लिये दोनों नयों का प्रानबन लेता है पर श्रद्धा में वह पशुख नयके पालम्बन को हेय समझता है । यही कारण है कि वस्तु स्वरूप का गयाओं परिजान होने पर भगवनय कामालम्बन स्वयं छूट जाता है। कुदकुदस्वामी ने उभयनपों के पालम्बन से वस्तस्वरूप का प्रतिपादन किया है इसलिये वह निर्विवाद रूप से सना हा है। माग नियममा में प्रतिपादित यस्तु तत्व का दिग्दर्शन कराया जाता है। नियमसार नियमसार में १५७ गाभाग और १२ अधिकार है अधिकारों के नाम इस प्रकार है : (१) जोवाधिकार (२) जीवाधिकार (३) व भावाधिकार (४) व्यवहार चारित्राधिकार (५) गरमा प्रतिममरणाधिकार (६) निपचय प्रत्याख्यानानिकार (७) परमानोचनाधिकार (८) शुद्धनिश्चय प्रायश्चिताधिकार (E) परमममाध्यधिकार (१०) परम भक्त्यधिकार (११) निश्चय परमादण्यकाधिकार प्रो. (१२) शुद्धोपयोगाधिकार । (१) जोषाधिकार : नियम का अर्थ लिखने हा कुन्दकन्दाचार्य कहते हैं: - णियमेण यजंकज तग्णियमं जाणवंसगचरित' । विपरीय परिहरत्यं पणिदं खल सामिविषयणं ॥३॥ जो नियम से करने योग्य हों उन्हें नियम कहते हैं। नियम से करने योग्य ज्ञान दर्गन और चारित्र है। विपरीत शान, दर्शन और चारित्र का परिहार करने के लिये नियम शन्द के साथ सारपद का प्रयोग किया है। इस तरह नियमसार का अर्थ सम्यमान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्पारित है। संस्कृत टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है "निघमशम्दस्तावत् सम्यग्दर्शनशानचारिप्रेषु वर्तते, नियमसार इस्पनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् ।" : -- - - - --
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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