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________________ -- - अर्थात् नियम धाब्द सग्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र में प्राता है तथा नियमसार इस शब्द से शुद्धरत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है । जिन शासन में मार्ग और मार्ग वा फल पन दो पदार्थों का कथन है। उनमें मार्ग-मोक्ष का उपायसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र कहलाता है और निवारण, मार्ग का फल कहलाता है। इन्हीं तीम का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का लक्षण लिखते हुये कहा है माप्त, पागम और तत्वों के प्रधान से सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन होता है । जिसके समस्त दोष नष्ट हो गये है तथा जो सकल गुण स्वस्प हैं वह प्राप्त है । क्षुधा तृषा आदि अठारह दोष कहलाते हैं और केवलज्ञान मादि मुग कहे जाते है । प्राप्त भगवान् क्षुधा तृषा प्रादि समस्त दोपों से रहित हैं तथा फेवलज्ञानादि परमविभव-अनन्त गुण रूप ऐपवर्य से सहित है। यह प्राप्त हो परमात्मा कहलाता है। इसमे विपरीत प्रामा परमात्मा नहीं हो सकता। प्रागम और तत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है -- उन प्राप्त भगवाग के मुख में उद्गत -दिव्यध्वनि से प्रकटित तथा पूर्वापर विरोध रूप दोष से रहित जो शुद्ध वचन है वह पागम कहलाता है और अगम के द्वारा कथित जी जीव, गुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और अाकाशा है वे तत्वार्थ हैं । वे तत्वार्य नग्नः गृण और पयायों से सहित हैं। इन तत्वार्यो में दपरावभासी होने से जीव तत्व प्रधान है। उपयोग, यूमा लक्षण है। उपयोग के बागपयोग और दर्शनोपयोग की अपेक्षा दो भेद हैं। ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का है। केवलज्ञान स्वभाव ज्ञानोपयोग है और विभाव ज्ञानोपयोग, सम्यग्जान तथा मिध्याज्ञान की प्रगक्षा दो प्रकार का है। विभाव सम्यग्ज्ञानोपयोग के मति श्रुत्त भवधि पोर मनःपर्यय के भेद से चार भेद हैं पौर विभाव मिथ्याज्ञानोपयोग के मुमति, कुश्रुत और कुप्रवधि की पेक्षा तीन भेद हैं। इसी तरह दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव को प्रपंक्षा दो भेद हैं। उनमें केवल दर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है तथा चक्षुदर्शा, प्रचक्षुदर्शन और प्रबधिदर्शन ये तीन वर्णन विभाव दर्शनोपयोग हैं । पर्याय के वर की अपेक्षा मे सहित और परको अपेक्षा में रहित, इस तरह दो भेद हैं। अर्थ पर्याय प्रार व्यंजन पर्याय के भेद से भी पर्याय दो प्रकार की होती है। पर के प्रानय से होने वाली षट्गुणी हानि वृद्धिरूप जो संसारी जीव की परिणति है वह विभाव प्रथं पर्याय है नया सिद्ध परमेष्ठी की जो षड्गुणी हानि वृदिरूप परिगति है वह जीव को स्वभाव अधं पर्याय है। प्रदेशावत्व गुण के विकार रूप जो जीव की परिणति है अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की अपेक्षा रक्खी जाती है उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं। इसके मी स्वभाव और विभाग की अपेक्षा दो भेद होते हैं। अन्तिम शरीर से किच्चिदून जी सिद्ध परमेष्ठी का साकार है वह जीच की स्वभाव व्यजन पर्याय है पौर कोपाधि से रचित जो भरनारकादि पर्याय हैं वह विभाव व्यन्जन पर्याय है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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