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________________ १२] नियमसार तथा हि--- ( मालिनी) दुरधवनकुठारः प्राप्तदुष्कर्मपारः परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाषिपूरः । हतविषिविकारः सत्यशाब्धिनीरः सपदि समयसार: पातु मामस्तमारः ॥६२।। ( मालिनी) जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपनप्रभमनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् । हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद भवभवसुखदुःखान्मुक्तमुक्तं बुधैर्यत् ॥६३॥ - ... . .. . [उसी प्रकार से टोकाकार श्री मुनिराज भी शुद्ध आत्मतत्त्व का वर्णन करते हुए सात श्लोक कहते हैं ] (६२) श्लोकार्थ-जो दुष्ट पापों के वन को काटने में कुठार है, दुष्ट कर्मों के पार को प्राप्त हो चुका है, पर परिणति से दूर है, रागरूपी समुद्र के प्रवाह को जिसने नष्ट कर दिया है, जिसने बिविध विकारों का घात कर दिया है, जो वास्तविक सुख रूपी समुद्र का जल है और जिसने कामदेव को अस्त-समाप्त कर दिया है ऐसा वह समयसार-शुद्ध आत्मा का स्वरूप शीघ्र ही मेरी रक्षा करो । (६३) इलोकार्थ-जो परमतत्त्व, तत्त्व में निष्णात ऐसे पद्मप्रभ मनि के हृदय कमल में विराजमान हैं, निर्विकार हैं, जिसने विविध विकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो कल्पना मात्र से रम्य ऐसे भव-भव के सुख-दुःखों से रहित है, जो बुद्धिमानों के द्वारा कहा गया है वह परमतत्त्व जयशील होता है । भावार्थ-यहां टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव मुनिराज शुद्धात्म तत्व का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि तत्त्व में प्रवीण ऐसे मेरे हृदय कमल में यह परमतत्त्व
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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