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________________ - " शुद्धभाव अधिकार [ १२७ वर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनिजपरमतत्त्वपरिच्छेदपासमत्वानिमूहः, अथवा सानिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन कामत्रिलोकवतिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायकसमयपरिच्छितिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वानि ढश्च । निखिलदुरितयोरवरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तसरवमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः । अयमात्मा ह्यु पादेयः इति । स्या चोक्तममृताशीतो ( मालिनी) 'स्वरनिकरविसर्गव्यंजनाधक्षरर्यद रहितमहितहोनं शाश्वतं मुक्तसंख्थम् । प्ररसतिमिररूपस्पर्शगंधाम्बुवायुक्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम् ।।" हज परम वीतराग सुख आदि अनेक परम धर्मों का आधारभूत ऐमा जो निज परमतित्व है उसको जानने में ममर्थ होने से जो निर्मूड है, अथवा सादि सान्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाव बाले पृद्ध गदभूत व्यवहार नय के बल से तीनों काल और नोनों खीक में रहने वाले स्थावर -जंगमरूप सम्पूर्ग द्रव्य गुण और उनकी पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ ऐसा जो सकल बिमल केवलज्ञान है उस केवलज्ञानरूप से अवस्थित होने से यह प्रान्मा निर्मूढ़ है। सम्पूर्ण पाप रूपी वीर बैरी की सेना के सब दुःप्रवेश-जिसमें प्रवेश करना दुष्कर है ऐसा जो निजशुद्धचैतन्यतत्त्वरूप महाभाई वही प्रावास स्थान होने से यह ग्रात्मा निर्भय है । निश्चित रूप से यह (ऐसी) मा हो उपादेय है। उसी प्रकार अमृताशीनि ग्रन्थ में भी कहा है-- लोकार्थ - "जो स्वर समूह से विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों से रहित है, हित से होन-रहित है, शाश्वत है, संख्या से रहित है, रस रहित है, तिमिर रहित स, स्पर्श, गंध से रहित है, जल-वायु अग्नि और पृथ्वो से रहित है, अणु और जे से रहित है, तथा दिशानों के समूह से भो रहित है ऐसा यह आत्म तत्त्व है।"
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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