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________________ नियमसार ... ppie १५० ] काय विकृतिः । आकुंचन प्रसारणादिहेतुः संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्घातः । एतासां steferri निवृत्तिः कायमुप्तिरिति । ( अनुष्टुभ् ) मुक्त्वा कार्याविकारं यः शुद्धात्मानं मुहुर्मुहुः । संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृती ॥६३॥ जा रायादिरिणयत्ती मरणस्स जाणीहि त मोगुती । अलियादिरिणयति वा, मोगं वा होइ वदिगुती ॥६६॥ या रागादिनिवृत्तिम्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम् । अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ||६६|| विशेषार्थ - यहां कायगप्ति में भी व्यवहारनय की प्रधानता होने से काय की अशुभ क्रियाओं के त्याग को ही विवक्षित किया है। इसलिये व्यवहारनयकी अपेक्षा से तीनों ही गुप्तियां अशुभयोग से निनिरूप होती हैं समझना चाहिये | आगे आचार्यत्रयं स्वयं संपूर्ण शुभ-अशुभ योग के सिद्ध करते हुये निश्चयनयको अपेक्षा से कह रहे हैं। । [ अब टीकाकार श्लोक द्वारा कायप्ति के फल को बतलाते हैं— ] ऐसा अभिप्राय निग्रह को गुप्ति ( ३ ) श्लोकार्थ - जो साधु काय के विकार को छोड़कर पुनः पुनः शुद्धात्मा की सम्यक्प्रकार से भावना करते हैं. इस संसार में उन्हींका जन्म सफल है ।। ९३॥ अर्थात् यथाजात पद्मासन या खड्गासन मुद्रा से शरीरको स्थिर करता काय की गुप्तिरूप क्रिया है, इससे अतिरिक्त काय को किसी प्रकार की भी प्रवृत्ति काय का विकार है, उसको छोड़कर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, यहां पर इसप्रकार से कार्य गुप्ति के फल को सूचित किया है । गाथा ६६ अन्वयार्थ – [ मनसः या रागादिनिवृत्तिः ] मन से जो रागादि परिणामों का अभाव है [तां मनोगुति जानीहि ] तुम उसे मनोगुप्ति जानो, [ अलीकादिनिवृत्तिर्वा ] १ जाणाहि (क) पाठान्तर ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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