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________________ व्यवहार नारिय अधिकार रागादि भाव से जो मन दूर हटाते । उनके ही निश्चयन में मनगुति बताते || असत्य श्रादि में सदा जो दूर रहे हैं । था मौन को धरें उसे वच गुप्ति कहे हैं ।। ६६ । [ १=१ निश्चयनयेन मनोवाग्गुलिसूचनेयम् । सकलमोहरागढ षाभावादखंडाढुं तपरमविरूपेसम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः । हे शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च । मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञाना गोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिनं भवति । इति निश्चयवाग्गुप्तिस्व रूपमुक्तम् और असत्य वचन आदि का अभाव होना, [ मौनं वा वाग्गुप्तिः भवति ] अथवा मीन रहना वह वचनगुप्ति होती है । टीकर - यह निश्चयनय से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की सूचना है। संपूर्ण मोह राग और द्वेष का अभाव हो जाने मे अखंड अन परम चैतन्य स्वरूप में सम्यक्प्रकार मे अवस्थित होना ही निश्चय मनोप्ति है । हे शिष्य ! तुम उस अचल अवस्था को 'मनोति' इसप्रकार मे जानो । संपूर्ण असत्य भाषा का त्याग होना अथवा मौनव्रत होना मां वचनगुप्ति है । क्योंकि मूर्तिकद्रव्य में चेतना का अभाव होने से और अमूनिक द्रव्य इंद्रियज्ञान के विषय नहीं होने से इन दोनों जगह वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इसप्रकार से निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा है । विशेषार्थ -- मन में पूर्णतया रागादि परिणामों का न होना ही निश्चय मनोहै जो कि पूर्णरूप से ग्यारहवं-बारहवें गुणस्थान में घटित होती है, उसके पूर्व श्रेणी में बुद्धिपूर्वक रागादि का अभाव होने से वहां पर भी घटित हो जाती है, क्योंकि यह गुप्ति आत्मा में एकाग्र ध्यान की परिणतिरूप है अतः अंशरूप मे - या प्रारंभरूप उसे सातवें गुणस्थान में भी घटित हो सकती है। मौनव्रत को वचनगुप्ति कहते हुये आचार्यश्री का यह अभिप्राय है कि पुद्‌गलद्रव्य जो कि मूर्तिक है वह अचेतन है और द्रव्य अमृर्तिक होने से इंद्रियज्ञान के अगोचर हैं अतः किससे वचनालाप किया य? इसलिये वचनप्रवृत्ति को रोकना निश्चयवाग्गुप्ति है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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