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________________ १८२] नियमसार (शार्दूलविक्रीडित ) शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः शुद्धाशुद्धनयातिरिक्तमनघं चिन्मात्रचिन्तामरिणम् । प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया साधं स्थितां सर्वदा जीवन्मुक्तिमुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः ॥१४॥ परिमिन' काल तक संपूर्ण योग का निग्रह होना गुप्ति है । उम गुप्ति में असमर्थ हुये साधु की कुगन-शुभ कार्यों में जो प्रवृत्ति है वह समिति कहलाती है। "इसलिये मनो गृप्ति में संपूर्ण मन संबंधी परिम्पंद का निषेध है"। ऐसे बचनगुप्ति में भी 'मौन को वचनगुप्ति' कहने पर उसमें संपूर्ण बचनों का अभाव हो जाता है। अतः यहां पर निश्चय गुप्नि में मन-वचन के परिम्पंदन का निषेध समझना चाहिये । [ अब टोकावार इन दोनों निश्चयगुप्तियों के फल को बतलाने हये श्लोक कहते हैं-] (६४) श्लोकार्थ—पापरूपी बन के लिये अग्निस्वरूप में योगितिलक प्रशस्त और अप्रणस्त मन-वचन के समूह को छोड़ करके आत्मस्वरूप में लीन हये, शुद्ध और अशुद्ध नयों में रहित, निर्दोष, चिन्मात्र चिंतामणि को प्राप्त करके अनंतचतुष्टयात्मकरूप के साथ सदा रहने वाली ऐसी जीवन्मुक्त अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं ।।९।। भावार्थ-निश्चय रत्नत्रय मे परिणत हुए महामुनि प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन वचन के व्यापारों को छोड़कर नयातीत अवस्था को प्राप्त ऐसे शुद्धात्मतत्त्व में लीन होकर अहंत हो जाते हैं। यहां पर निश्चयगुप्ति में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन बचन के व्यापार को छुड़ाया गया है। १. तत्त्वार्थ वातिक पृ. ५९४ । २. तत्त्वार्थ, पृ. ५६५ ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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