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________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १८३ कायकिरियाणियत्ती, काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती । हिंसाइणियत्ती वा, सरीरगुत्ति ति णिहिट्ठा ।।७०॥ कायक्रियानिवत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गप्तिः । हिसादिनिवृत्तिर्वा शरीराप्तिरिति निदिष्टा ॥७०।। सब काय को क्रिया का परिहार जो करें । कायोत्सर्ग करके काय गुप्ति वे धरें ।। अथवा जो हिंमा आदि क्रियाओं में दूर हैं। निश्चय में काय गुप्ती पाले वे शूर हैं ।।७०।। निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । सर्वेषां जनानां फायेषु बह्वयः किया विद्यन्ते, तासां निवृत्ति: कायोत्सर्गः स एव गुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणां प्रसानां च हिसानिवृत्तिः कायगप्तिर्वा । परमसंयमधरः परमजिनयोगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूतिरेव निश्चयकायमुग्लिरिति । तथा चोक्त तत्त्वानुशासने गाथा ७० अन्वयार्थ-[ 'कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ] वाय की । क्रियाओं के अभावरूप कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है, [ वा हिंसादिनिवृत्तिः शरीर गुप्तिः इति निर्दिष्टा ] अथवा हिमादि पापों का अभाव होना भी कायगुप्ति है ऐसे कहा गया है। टोका-यह निश्चयकायगुप्ति के स्वरूप का कथन है ।। सभी जनों के कायों में बहतसी क्रियायें होती हैं उन कायसंबंधी क्रियाओं का अभाव होना कायोत्सर्ग हैं, वही कायगुप्ति होती है । अथवा पांच स्थावर और भक बस ऐसे षदकायिक जीवों की हिंसा का न करना कायगुप्ति है। जो परम संयमधारी परम जिनयोगीश्वर महामुनि अपने चैतन्यमय शरीर में अपने चैतन्यमय शरीर से प्रवेश कर चुके हैं, उनकी परिस्पन्दन रहित निश्चलमूर्ति ही निश्चयकाय गुप्ति है। । इसीप्रकार तत्त्वानुशामन ग्रन्थ में भी कहा है १.ये ६९वीं और ७० वीं गाथा मूना० में ११८७, ११८५ नंबर की हैं।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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