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________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १५३ अहिंसावतस्वरूपाख्यानमेतत् । कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणामानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः । अत्र पुनरुक्तिदोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां मेवान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा । तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति । अत एवं प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिसावतं भवतीति । तथा चोक्त श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः (शिखरिणी) "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रंथमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ।।" टोका-यह अहिंसावत के रवरूप का कथन है। कुलों के भेद, योनियों के भेद, जीवस्थान के भेद और मार्गणास्थानों के भेद पहले ही प्रतिपादित किये गये हैं 1 यहां पुनरुक्ति दोष के भय से पुनः नहीं प्रतिपादित 3 किये हैं। वहीं पर कहे हुए उनके भेदों को जानकर उनके रक्षा की परिणति ही अहिंसा होती है । उन जीवों का मरण हो अथवा न हो, किंतु प्रयत्न परिणाम के बिना सावद्यदोष का परिहार नहीं होता है। इसीलिए प्रयन्न में तत्पर होने पर हिंसा की परिणति का अभाव होने मे अहिंसाबत होता है । उसी प्रकार से श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा है अर्थ-जीवों की अहिंसा परमब्रह्मस्वरूप है, यह वात जगत में विदित है। । : जिस आथम के विधान में अणुमात्र भी आरम्भ है वहां पर वह अहिंसा नहीं है । अतः उस अहिंसा की सिद्धि के लिये हे भगवन् ! परमकारुणिक आपने ही उभय-अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिया, और आप विकृतवेश तथा उपधि-परिग्रह में रत नहीं हुए।" १. स्वयंभूस्तोत्र, नमिजिनस्तुति ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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