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________________ | १५४ ] तथा हि नियमसार ( मालिनी ) त्रसहृतिपरिणामध्यांतविध्वंस हेतुः सकलभुवनजीव ग्रामसौख्य प्रदो यः 1 स जयति जिनधर्मः स्थावरं केन्द्रियाणां विविधवधविदूरश्चारुशर्म्माब्धिपूरः ॥७६॥ रागेण व दोसेण व, मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो पजहदि' साहु सया, विदियवदं होइ तस्सेव ॥५७॥ रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं । यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ॥ ५७॥ उसी प्रकार से [ टीकाकार श्री पद्मप्रभमलवारिदेव श्लोक कहते हैं— 1 (७६) श्लोकार्थ - जा त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के विध्वंस का हेतु है, सकभुवन के जीवसमूह को सौख्य प्रदान करने वाला है, जिसमें स्थावर कायिक एकेन्द्रिय जीवों के विविध प्रकार के वध बहुत ही दूर हैं और जो उत्तम सुखरुपी समुद्र का पूर है ऐसा वह जैनधर्म जयशील होता है ॥ ७६ ॥ भावार्थ — जो धर्म त्रम स्थावर की हिंसा से दूर है और सभी जीवों को सुखदायी है तथा उत्तम सुख का सागर है वह आज भी जयवंत हो रहा है । १. पजहहि ( क ) पाठान्तर गाथा ५७ अन्वयार्थ - [ रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा ] राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से होने वाले [ मृषाभाषा परिणामं ] असत्य भाषा के परिणाम को [ यः साधुः
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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