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________________ नियममार जो साधु हीन आवश्यक की क्रिया से । चारित्र से वह मुनी सच भ्रष्ट ही है ।। पूर्वोक्त क्रम समझ के इस ही लिये तो। व्यवहार निश्चय क्रिया षट् नित्य पालो ।।१४८।। अत्र शुद्धोपयोगाभिमुखस्य शिक्षणमुक्तम् । अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्तनिर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमावश्यक्रियापरिहोणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति ।। [ पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वकथित क्रम से [ आवश्यकं कुर्यात् ] आवश्यक क्रिया करना चाहिए। टोका-यहां पर शुद्धोपयोग के अभिमुख हुए मुनि को शिक्षा कहीं है। यहां पर यह बताया है कि व्यवहारनय से भी समता स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान आदि षट् आवश्यक क्रियाओं से हीन हआ श्रमण चारित्र से परिभ्रष्ट है । और शुद्धनिश्चयनय से परम अध्यात्म भाषा से कथित ऐसी निर्विकल्प समाधिस्वरूप परमावश्यक क्रिया से हीन हुआ श्रमण निश्चयचारित्र से भ्रष्ट है ऐसा अर्थ है । अतः पूर्वोक्तस्ववश हुए परमजिनयोगीश्वर का जो निश्चय आवश्यक का क्रम है जो कि स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और शुक्लध्यानस्वरूप है उसी क्रम से परममुनि सदा आवश्यक क्रिया को करो। भावार्थ-यहां पर टीकाकार ने स्पष्ट कह दिया है कि जो साधु व्यवहार क्रियाओं से शून्य हैं, वे चारित्र से ही भ्रष्ट हैं । पुनः उनके निश्चय क्रिया तो बहुत ही दूर है किंतु जो निश्चय को साध्य समझते हुए व्यवहार क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं जब तक निश्चय को प्रारत नहीं कर लेते हैं तभी तक उसे उपादेयभूत समझते हैं वे ही साधु व्यवहार में निष्पन्न होते हुए एक दिन निश्चय को अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं। [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय क्रियाओं के महत्त्व को दो श्लोकों से कहते हैं
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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