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________________ ३५६ ] नियमसार . तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे। साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे ॥२१२।। जस्स रागो दु दोसो दु, विडि रण जणेइ दु । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२८।। यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृति न जनयति तु । तस्य सामायिक स्थायि इति केवलिशासने ॥१२८॥ ये राग द्वेष बिकार नहिं उत्पन्न हो सकते जिन्हें । वे ही महामुनि वीलगग, समाधि में नित परिगा में ।। हमने म रानावमय म्यापि सामायिक रहे। महंत शासन में कहा यह कुन्दकुन्द गुरू कहें ।। १२८।। इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्तम् । यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटधोपावकस्य रागो वा द्वषो वा विकृति नावतरति, तस्य महानन्दाभिला - -...अन्तःकरण है तो राग के समाप्त हो जाने से रमणीय भवभय को हरण करने वाले " ऐसे उन भावी तीर्थाधिनाथ में यह सहजसमता निश्चित ही साक्षात् होती है । भावार्थ-वीतरागी परम साधु के आत्मा सदा ही तपश्चरण आदि में स्थित रहती है यही कारण है कि वे भावी तीर्थेश्वर हैं और उनके अन्दर परम साम्य भावना । परम वीतरागता प्रगट होती है । गाथा १२८ अन्वयार्थ--[यस्य] जिनके, [रागः तु द्वषः तु] राग और द्वष, [ विकृति । तु न जनयति ] विकृति को उत्पन्न नहीं करते हैं, [तस्य] उनके, [सामायिक स्थायि] । सामायिक व्रत स्थायी है, [इति] ऐसा, [ केवलि शासने ] केवली भगवान के शासन में । में कहा है। टीका--रागद्वेष के अभाव से परिस्पंद रहित अवस्था होती है, ऐसा यहाँ पर कहा है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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