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________________ परम-समाधि अधिकार [ ३५७. षिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहत्य सामायिकनामवतं शाश्वतं भवतोति केवलिनां शासने प्रसिद्ध भवतीति । (मंदाक्रांता) रागद्वषो विकृतिमिह तो नैव कर्तुं समर्थों ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकशोरान्धकारे । पारातलीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः ।।२१३॥ जो दु अट्टच रुच, झारणं वज्जेदि रिगच्चसा । तस्स समाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२॥ पापप्पी वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप ऐसे जिन परम वीतरागी संयमी राग अथवा हेप विकृति को अवतरित नहीं करते हैं, उन पंचेन्द्रियों के व्यापार से रहित गात्र मात्र परिगारी पने पर मानद अभिलारी जीव के सामायिक नाम का नत शाश्वत होता है, ऐसा कंबली भगवान के शासन में प्रसिद्ध है । [टीकाकार मुनिराज ऐसे निर्विकल्प योगी का वर्णन करते हुए कहते हैं-] (२१३) श्लोकार्थ-जिन्होंने ज्ञान ज्योति से पाप के समूहरूप ऐसे घोर अंधकार को नष्ट कर दिया है जो सहज परमानंद पीयूष के पूर स्वरूप हैं ऐसे आरातीयआधुनिक इन मुनिराज में ये रागद्वेष विकृति को करने के लिये समर्थ नहीं हैं, ऐसे नित्य ही समरसमय उनके लिये क्या तो विधि है और क्या निषेध है ? भावार्थ-जिनके हृदय में भेदविज्ञानरूप प्रकाश उत्पान्न हो चुका है और जो परमानंदरूप अमृत से परमतृप्ति को प्राप्त हैं ऐसे मुनिराज में राग और द्वेष अपना प्रभाव नहीं डाल सकते हैं वे भी परम प्रशमभाव को प्राप्त हो जाते हैं, तब वे साधु निर्विकल्परूप परम उदासीन ऐसे वीतराग भाव में ठहर जाते हैं, उस समय उन्हें कुछ ग्रहण करने और छोड़ने का विकल्प नहीं रह जाता है । __गाथा १२६ अन्वयार्थ--[ यः तु आतं च रौद्रं ध्यानं ] जो आर्त तथा रौद्र ध्यान को, [नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देते हैं, [ तस्य ] उनके, [ सामायिकं स्थापि ]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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