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________________ ३५८ ] नियमसार यस्त्वातं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ॥१२६।। जो आर्तध्यान व रौद्र ध्यानों, को सदा परिहारते। स्वात्माभिमुख होकर सतत, निजतत्त्व एक निहारते ।। उन महामुनि के ध्यानमय, स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली के विमल शासन में इसो विध से कहे ।।१२६॥ आर्तरौद्रध्यानपरित्यागात् सनातनसामायिकवतस्वरूपाख्यानमेतत् । यस्तु । नित्यनिरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपनियतशुद्धनिश्चयपरमवीतरागसुखामृतपानपरायणो । जीवः तिर्यग्योनिप्रतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशः । संत्य जति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्ध शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति । -.- - - -- - - - - - - - सामायिक स्थायी है, [ इति ] ऐसा, [ केवलिशरसने ] केवली भगवान के शासन में । कहा है। ___टीका-आर्तरौद्र ध्यान के परित्याग से सनातन सामायिक व्रत के स्वरूप का यह कथन है। नित्य निरंजन निज कारण समयसार स्वरूप में नियत ( नियम से स्थित ) शुद्ध निश्चय परम वीतराग सुखरूपी अमृत के पीने में तत्पर ऐसे जो जीव तिर्यंचयोनि रूप प्रेतावास और नारक आदि गति की योग्यता के लिये कारणभूत ऐसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान को हमेशा छोड़ देते हैं, उनके निश्चितरूप से केवल दर्शन से शाश्वत ऐसा सामायिक ब्रत होता है । भावार्थ-आर्तध्यान तिर्यंच गति का कारण है और रौद्रध्यान नरकगति का कारण है । इन दोनों दुर्व्यानों से रहित मुनिराज को सदा ही धर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यानरूप निश्चय सामायिक व्रत होता है । [अब टीकाकार मुनिराज इन दुर्व्यानों के त्याग की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-]
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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