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________________ शुद्धभाव अधिकार [ १४३ पुवृत्तसयलभावा,' परदव्वं परसहावमिदि हेयं । सगववमुवादेयं, प्रतरतच्चं हवे अप्पा ॥५०॥ पूर्वोक्तसकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः । स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ॥५०॥ संपूर्ण भाव जितने हैं पूर्व में कहे । पर द्रव्य पर स्वभावी ५४ हेय .. निज द्रव्य सो ही अंत: स्वतत्व जगत में । निज प्रात्मा ही सबको उपादेय सत्य में ।।५।। हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनभिवम् । ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्व व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्धनिश्चयनयबलेन हेया भवन्ति । कुतः, परस्वभावस्वात्, प्रत एव परद्रव्यं भवति । सकलविभावगुणपर्यायनिर्मु वसं शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूप स्वद्रव्यमुपादेयम् । अस्य खलु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्म - -- गाथा ५० अन्वयार्थ-[पूर्वोक्तसकलभावाः] पूर्वोक्त सभी भाव [परद्रव्यं परस्वभावाः] परद्रव्यरूप परम्वभाव हैं, [इतिहेयाः] इसलिए हेय हैं, [मंतस्तत्त्वं प्रात्मा] चैतन्यतत्त्वरूप आत्मा [स्वकद्रव्यं उपादेयं भवेत् ] स्वकीयद्रव्य है, इसलिए उपादेय होता है । टोका-यह हेय के त्यागस्वरूप का और उपादेय के ग्रहणस्वरूप का कथन है। ___ जो कोई भी विभावगुण और विभावपर्याय हैं वे पूर्व में व्यवहारनय की अपेक्षा से उपादेयकप में कही गई हैं किंतु वे शुद्धनिश्चयनय के बल से हेय होती हैं । क्यों ? क्योंकि वे परस्वभावरूप हैं और इसीलिए वे परद्रव्य हैं । सकलविभावगुण और १. पुन्चन्तसगदभावा (क) पाठान्तर
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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