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नियममार
( मंदाको न घेतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः । एष श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनौशो
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ।।२६१॥ ठाणणिसेज्जविहारा, ईहापुव्वं रण होइ केवलिणो । तम्हा ण होइ बंधो, साक्खट्ठ मोहरणीयस्स ॥१७५॥
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्व न भवन्ति केवलिनः । तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ॥१७५।।
श्री कंवली प्रभू जो बैटे ब खड हो । विहर न इच्छा पूर्वक स्वयमेव किया हों ।। अतएवं बंध उनकः कैसे भि नहीं है । इंद्रिय विषय प्रहरण में मोहा के बंध है ।।१७५।।
(२६१) श्लोकार्थ-इन जिनेन्द्र भगवा म धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है क्योंकि राग का अभाव हो जाने से अतुल महिमाशाली वीतराग देव शोभायमान होते हैं । ये श्रीमान् भगवान अपने सुख में लीन हैं, सिद्धिरूपी रमणी के स्वामी हैं, तथा सब ओर से जिन्होंने ज्ञानज्योति के द्वारा नमस्त भवन के अभ्यन्तर भाग को व्याप्त कर लिया है।
भावार्थ-- -अहत भगवान के मोहनीय कर्म का पूर्णतया अभाव हो जाने से वे वीतरागी हैं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतगय के अभाव से वे केवलज्ञानी हैं, सर्वदर्शी हैं तथा अनन्तशक्तिशाली हैं। इसलिये उनका ज्ञान तीनों लोकों में और अलोक में भी मर्वत्र व्याप्त हो रहा है।
गाथा १७५ __ अन्वयार्थ— [ केलिनः ] केवली भगवान् के [ स्थाननिषण्णविहाराः ] खड़े होना, बैठना और बिहार करना [ ईहापूर्व न भवंति ] इच्छापूर्वक नहीं होते हैं,