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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ( मंदाक्रांता]) वचनरचनारूपमत्रास्ति तंव ईहापूर्व तस्मादेष प्रकट महिमा विश्वलोकैकभर्ता । अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्रव्यभावात्मकोऽयं मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषाविजालम् ।। २८६ ।। ( मंदाता ) एको देवस्त्रिभुवन गुरुष्टकर्माष्टकाः सबोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् । आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूच्र्छना चेतना च ।। २६० ।। [ ४६६ | अक्ष टीकाकार मुनिराज केवली भगवान् की दिव्यध्वनि की प्रशंसा करते हुए आगे कलगरूप तीन काव्य कहते हैं--] ( २८६ ) श्लोकार्थ - इन केवली भगवान् में इच्छापूर्वक वचन रचना का स्वरूप नहीं है, इसलिये ये भगवान् प्रकटरूप से महिमाशाली हैं और विश्वलोक के एक अद्वितीय स्वामी हैं। इनमें द्रव्य और भावरूप यह बंध कैसे हो सकता है ? क्योंकि मोह का अभाव हो जाने मे उनके समस्त रागद्रे षादि समूह निश्चितरूप से नहीं रहता है। ! ( २६० ) श्लोकार्थ- जिन्होंने अष्टकर्म के आधे अर्थात् चार घातिया कर्मों को नाश कर दिया है ऐसे एक अर्हतदेव ही त्रिभुबन के गुरु हैं क्योंकि यह समस्त लोक और उसमें स्थित समस्त वस्तु समूह उनके सज्ज्ञान में स्थित है । ऐसे साक्षात् स्वरूप जिनेन्द्र भगवान् में न बंध ही है और न मोक्ष ही है, तथा न उनमें कोई मूर्च्छाअज्ञानदशा ही है और न चेतना - ज्ञानदशा ही है । भावार्थ - अर्हतदेव ही सर्वज्ञ हैं अतः उनमें बंध - मोक्ष या ज्ञान तथा अज्ञानरूप अवस्थायें नहीं हैं क्योंकि वे पूर्णज्ञानी हैं, ज्ञान स्वरूप ही परिणत हो चुके हैं ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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