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________________ ३२ । नियमसार संज्ञान के हैं चार भेद सुरि बतायें । मति श्रुत प्रवधि व मनःपयों से कहाये ।। प्रज्ञान के भी तीन भेद जान लीजिये। मति श्रुत अवधि हि तीन को विपरीत कीजिये ।।१२।। अत्र च ज्ञान मेदलक्षणमुक्तम् । निरुपाधिस्वरूपत्वात केवलम्, निरावरणस्वरूपत्वात् ऋमकरणव्यवधानापोहम्, अप्रतिवस्तुव्यापकत्वात् प्रसहायम्, तत्कार्यस्वभावज्ञानं भवति । कारणज्ञानमपि तादृशं भवति । कुतः, निजपरमात्मस्थितसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखसहजपरमचिच्छक्तिनिजकारणसमयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं समर्थत्वात् तथाविषमेव । इति शुद्धज्ञानस्वरूपभुक्तम् । टीका-यहां पर ज्ञान के भेद और लक्षण को कहा है । उपाधिरहित म्वरूप वाला होने से जो केवल है, आवरण रहित स्वरूप वाला होने से क्रम और इन्द्रियों के व्यवधान-अंतर से रहित, अतीन्द्रिय है, एक-एक वस्तु में व्यापक नहीं होने से असहाय है अर्थात् समस्त वस्तुओं को एक साथ व्याप्त करके जान लेता है इसलिये असहाय है, वह कार्य स्वभावज्ञान होता है। कारण स्वभावज्ञान भी वैसा ही होता है । कैसे १ निजपरमात्मा में स्थित सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसख, सहजपरमर्चतन्य शक्तिरूप जो निजकारण समयसार के स्वरूप हैं उनको एक साथ जानने में समर्थ होने से वह कारण स्वभावज्ञान, कार्यस्वभावज्ञान के समान ही है इस प्रकार से शुद्धज्ञान का स्वरूप कहा है । अब ये शुद्ध अशुद्ध ज्ञान के स्वरूप और भेद कहे जाते हैं । मतिज्ञान उपलब्धि भावना और उपयोग से तथा अवग्रह, ईहा, प्रवास और धारणा के भेद से अथवा बहु, बहुविध आदि के भेद से अनेकों भेदों से सहित है । श्रुतज्ञान लब्धि और भावना के भेद से दो प्रकार का है। अवधिज्ञान देशाबधि, सर्वावधि और परमावधि के भेद से तीन प्रकार का है और मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति तथा विपुलमति के विकल्प से दो प्रकार का है । परमभाव में स्थित सम्यग्दृष्टि के ये चार संज्ञान-सम्यग्ज्ञान होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मिश्याहृष्टि को प्राप्त करके कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान इन भिन्न नामों को प्राप्त हो गये हैं।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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