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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
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(स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्वधानपात्रमिदमाह जिनेंद्रः । तत्त्वतः परमतत्त्वमजन भावयाम्यहमतो जितमोहः ॥१४४।।
( मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानन्दचिनिष्ठबुद्धेः । नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिररूपा ॥१४५।।
भावार्थ-जो संमार में भ्रमण कगने वाले ऐसे भावों से पूर्ण प्रत्याख्यान | स्वरूप हो चके हैं ऐसे पूर्ण शुद्ध सिद्ध भगवान हैं । शुद्धनिश्चयनय से 'वही मैं हूं' अर्थात् मैं भी समस्त विभाव भावों मे रहित ही हूं ऐसी भावना के द्वारा नित्य ही अपने स्वरूप का चितवन करना चाहिए ।
(१४४) श्लोकार्थ-घार मंगाररूपी महाममुद्र में यह देदीप्यमान जलयानजहाज है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, अता व भोह को जीन लिया है जिसने ऐसा मैं परमार्थ से दम परमतत्व को नित्य ही भाता हूं।
(१४५) इलोकार्थ-भ्रान्ति के नष्ट हो जाने से महज परमानन्दमय चैतन्य मनालीन है बुद्धि जिनकी, तथा जो शुद्ध चारित्र की मर्तिस्वरूप ऐसे साधु के सतत ही प्रत्याभ्यान होता है, किंतु अपर समय-अन्य सम्प्रदाय में स्थान रखने वाले ऐसे अन्य
योगियों के वह नहीं होता है प्रत्युत उन संसारी जीवों के पुनः पुन: घोर संसार ही । होता है।
भावार्थ--'अन्य प्रति में पाठ भेद होने से अन्य भाषाकार ने उसका अर्थ भी ___वमा ही किया है । जैसे-"चिन्निष्ठ बुद्ध" की जगह 'चिन्नष्ट बुद्धः' है जिसने...
चैतन्य शक्ति के द्वारा विकल्परूप बुद्धि को नष्ट कर दिया है । आगे 'योगिनामास्पदानां'
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१. म. शीतलप्रसाद कृत हिंदी सहित मुद्रित प्रति""""""
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