SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ ] मार्गदर्शक :- आचाय नियमसार इस विध से जो नित्य, जीव और करते भेदाभ्यास, भिन्न ग्रहें निज वे संगत गुरुदेव, बाह्य स्थाग के बल से । निश्चय प्रत्याख्यान निश्चित ही कर सकते ||१०६ ॥ कर्मों में । मन में ।। निश्चयप्रत्याख्यानाध्यायोपसंहारोपन्यासोयम् । यः श्रीमदन्मुखारविव विनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षमः, अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुङ्गलयोरनादिबन्धन संबन्धयोर्भेद मेदाभ्यासबलेन करोति स परमसंयमी निश्चय व्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति । (स्वाना) भाविकालभवभावनिवृत्तः सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः । भावयेदखिलसौदनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ॥। १४३ || संयतः ] वह संगमी, [ नियमात् ] नियम [ प्रत्याख्यानं धतुं शक्तः ] प्रत्याख्यान को धारण करने में समर्थ होता है । टीका – निश्रय प्रत्याख्यान अध्याय के उपसंहार का यह कथन है । जो श्रीमान् अरहन्तदेव के मुख कमल से विनिर्गत ऐसे परमागम के विचार में समर्थ हैं । अनादिकाल के बंधन से सम्बन्धित ऐसे अशुद्ध चैतन्य तत्त्व और कर्म पुद्गल में भेदा भ्यास के बल से भेद को करता है, वह परमसंयमी निश्चय और व्यवहार इन दोनों प्रत्याख्यानों को स्वीकार करता है, ऐसा समझना । [ अब टीकाकार मुनिराज इस प्रत्याख्यान प्रकरण को समाप्त करते हुए नौ श्लोकों से इसकी महिमा को स्पष्ट करते हैं- 1 ( १४३ ) श्लोकार्थ - जो भविष्यकाल में भव को करने वाले ऐसे भावों से रहित हो चुके हैं 'सो ही मैं हूं मुनियों के नाथ ऐसे महामुनि मल से मुक्त होने के लिये समस्त सौख्य का निधान और अमल - निर्दोष ऐसे अपने स्वरूप की प्रतिदि भावना करें |
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy