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________________ २८६ ] नियमसार (शिखरिणी) महानंदानंदो जगति विदितः शाश्वतमयः स सिद्धात्मन्युचनियतवसतिनिर्मलगुणें । अमी विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्ररभिहताः कथं कांक्षत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः ।।१४६॥ (मंदात्रांता) प्रत्यारूपानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तन्वं शीघ्र कुरु तव मतो भव्यशार्दूल नित्यं यत्किभूतं सहजसुखदं शीलमूलं पुनोनाम् ॥१४७।। - --- --- की जगह 'योगिनामाम्यदान' पार होने में उसका अर्थ- "अन्य आगम में लीन अन्य योगियों का मुख दान (उपयोग) इस ओर नहीं हो सकता है, सा अर्थ देखा जाता है। (१४६) श्लोकार्थ-- जो महान आनन्द स भी अधिक आनन्दम्प ऐसा महान आनन्द आनन्दम्वरूप जगत में प्रसिद्ध है, शाश्वतमय है, वह अनिश यरूप में निर्मल । गुणों से सहित सिद्धात्माओं में निश्चितम्प से निवास करता है, किन्तु ये विद्वान लोग । भी जो कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल हैं, ऐसे इस परमतत्व की वाञ्छा कैसे | करते हैं ? अहो ! बड़ा आश्चर्य है, कि वे जड़ बुद्धि जीव पाप से नष्ट हो रहे हैं। भावार्थ-जो परमतत्त्व मुक्त जीवों के पास है, संसारी प्राणी सम्पूर्ण विभाव विकल्पों से रहित उन्हीं सिद्धों में तन्मय-एक रूप होकर उसे प्राप्त कर सकत हैं कित जो विपय वासना में लिप्त हैं उनके लिये चाहने पर भी वह तन्त्र दुर्लभ है, नहीं मिलता है । इन्द्रिय और अतोन्द्रिय सुग्न एक साथ असंभव है । विषय सुख भी मिल और परमार्थ मुख भी ऐसा कभी किसीने न देखा है और न सुना ही है । साधुजना जब पूर्ण ब्रह्मचर्य के अवलम्बन से अंत: शुद्ध करते हैं उन्हें अंशात्मक आत्मा का आनंद आता है, वह आनन्द भोगी गृहस्थी को स्वप्न में भी दुर्लभ है । (१४७) श्लोकार्थ--जो सम्यक्चारित्र संयमियों में प्रगटरूप है शुद्ध में भी शुद्ध अत्यन्त शुद्ध है, और दुष्ट पाप कर्मरूपी वृक्षों से सघन ऐसे वन को जलाने के
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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