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________________ [२८७ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार (मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकार स्वरसविसरभास्वबोधविस्फूर्तिमात्रम् ॥१४८।। ( पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् । अथ प्रथलदुर्गवर्गदवह्निकोलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ॥१४६॥ लिए अग्नि के मदश है बह चारित्र प्रत्याख्यान से ही होता है, अतः हे भव्योतम ! । तृम शीघ्र ही अपनी वृद्धि में उस तत्व को नितति धारण करों । जो कि कैसा है ? ' सहजमुम्ब को देने वाला ऐमा मुनियों के शील-चारित्र का मूल है । भावार्थ - प्रत्याख्यान अर्थात त्याग, इसके बिना सम्यक्चारित्र ही असम्भव है अतएव यह त्याग ही मुनियों के सम्पूर्ण चारित्र वृक्ष की जड़ स्वरूप है । एसा समझना। (१४८) श्लोकार्थ-महजतन्व जयशील हो रहा है जो कि तत्त्व में निष्णात बुद्धि वाले ऐसे महामुनि के हृदयकमल के मध्य में विराजमान है । अस्त कर दिया है मोहरूपी अंधकार को जिसने ऐसा वह सहज तेज ( स्वाभाविक ज्योति ) अपने रसअनुभव के विरतार मे देदीप्यमान ज्ञान का स्फुण मात्र-प्रकाश मात्र है । (१४६) श्लोकार्य-जो अम्वण्डित-अखण्ड एक, अनारत-अविछिन्न, सकल दोषों से दूर, उत्कृष्ट, संसार समुद्र में डूबे हुए जीव समूह के लिये जहाज स्वरूप, प्रबल दुर्ग-संकट समूहरूपी दावानल को बुझाने के लिये जल के सदृश है, ऐसे उस सहज तत्त्व को ही मैं हर्ष से पुनरपि सतत नमस्कार करता हूं।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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