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________________ '' २८८] नियमसार ( पृथ्वी ) जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं मुनीश्वर मनोगृहान्तरसु रत्नदीपत्र भम् नमस्यमिह योगिभिविजित दृष्टिमोहादिभिः नमामि सुखमन्दिरं सहजतस्वमुच्चैरदः ।। १५० ।। (पृथ्वी) 1 प्रनष्ट प्रहृतपुण्यकर्मजं प्रधूतमदनादिकं प्रत्रलबोधसौधालयम् । प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रि नुमः ।। १५१ ।। ( १५० ) श्लोकार्थ - - जो जिनप्रभु के मुखकमल से विश्रुत है, स्वरूप में स्थित है - अपने आपमें ही विराजमान है, मुनीश्वरों के मनरूपी महल के भीतर रखे हुए सुन्दर रत्नदीप के समान है, दर्शनमोह को जीतने वाले योगियों के द्वारा इस जगत में नमस्कार करने योग्य है ऐसे मुख के मन्दिर उस सहजतत्त्व को मैं अतिशयरूप से नमस्कार करता हूं । ( १५१ ) श्लोकार्थ - जिसने प्रकर्षण से समूह को नष्ट कर दिया है, जिसने पुण्य कर्म के समूह को भी प्रकर्षरूप से मार दिया है, जिसने कामदेव आदि को प्रकर्षरूप से समाप्त कर दिया है, जो प्रबल अर्थात् प्रकृष्ट बलशाली ज्ञान- केवलज्ञान का निवास गृह है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं। जो प्रकृष्टरूप से करण - इन्द्रियों का नाम करने वाला है अथवा जो प्रकरण करने योग्य कार्य के नाश स्वरूप कृतकृत्य है, जो प्रकृष्ट रूप से वृद्धिगत गुणों के रहने के लिये स्थान स्वरूप है और जिसने प्रकर्ष रूप से मोहरात्रि को नष्ट कर दिया है ऐसे उस सहज परमतत्त्व को हम नमस्कार करते हैं । भावार्थ - यहां काव्य के प्रकाण्ड विद्वान पद्मप्रभमलधारी मुनिराज ने प्रत्येक पद के प्रारम्भ में 'प्र' शब्द का प्रयोग किया है जो कि आठ बार आया हूँ जिससे शब्द में ही नहीं बल्कि अर्थ में भी लालित्य आ गया है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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