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________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन । तथा ज्ञानी ज्ञाननिधि भुक्त े त्यक्त्वा परततिम् ॥१५७॥ कोई मनुष्य जिसविध निधि प्राप्त करके । गुप्त फल अनुभवे उसका स्वघर में ।। वैसे हि ज्ञाननिवि ज्ञानी भोगता है | संपूर्ण अन्य जन समति छोड़ करके ||९५७ ।। [ ४२५ अत्र दृष्टान्तमुखेन सहजतत्वाराधना विधिरुक्तः । कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतोदयेन निधि लब्ध्वा तस्य निधेः फलं हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थित्वा अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति । दृष्टान्तपक्षः । दान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्वज्ञानी जीवः क्वचिवासनभव्यस्य गुणोदये सति सहजवंश सम्पती या परमगुरु चरणनलिन युगल निरतिशय भक्त्या मुक्तिसुन्दरीमुखमकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधि परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां तति समूहं ध्यानप्रत्यूह कारण मिति त्यजति । गाथा १५७ अन्वयार्थ -- [ एक: निधि लब्ध्वा ] जैसे कोई निर्धन निधि को पाकर [सुजनत्वेन ] सुजनरूप से - गुप्तरूप से [ तस्य ] उसके [ फलं अनुभवति ] फल का अनुभव करना है [ तथा ] वैसे ही [ज्ञानी ] ज्ञानीजन [ परतति ] परजनों के समुदाय को [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञाननिधि भुक्ते ] ज्ञाननिधि का अनुभव करता है । टीका—यहां पर दृष्टांत की प्रमुखता से सहजतत्व की आराधना का विधान कहा है | कोई एक दरिद्र प्राणी कहीं पर कदाचित् पुण्य के उदय से निधि को प्राप्त कर उस निधि के फलस्वरूप सौजन्य - जन्मभूमि है ऐसे उस गुप्तस्थान में रहकर अत्यन्त गुप्त रीति से उसका अनुभव करता है यह दृष्टांत हुआ । अब दाष्टीत पक्ष में भी सहज परमतत्त्व ज्ञानी जीव कभी आसन भव्यता गुण के उदय में सहज वैराग्यरूपी सम्पत्ति के होने पर परम गुरु के चरण कमल युगल की निरतिशय उत्कृष्ट भक्ति से मुक्ति
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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