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________________ ३४६४ ] नियमसार मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिनिन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतुदृष्टान्तसमन्धितं कुतर्कवचनं श्रुत्वा ह्यक्ति जिनेश्वरप्रणोतशुद्धरत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्तिः कर्तव्येति । ( शार्दूलविक्रीडित ) देहव्यूहमहोजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीषावने नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दुइ मोहिनां देहिनां जैन दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।।३०६॥ तथा हि - .. - -- - । के मार्ग की कोई लोग निंदा करते हैं। उन स्वरूप से शून्य हुये जनों के कुहेतु और | कुदृष्टांत से सहित कुतर्क वचन को सुनकर जिनेश्वर देव के द्वारा प्रणीत शुद्ध रत्नत्रय मार्ग में हे भन्य ! तुम अभक्ति मत करो, किंतु तुम्हें उस मार्ग में भक्ति ही करना चाहिए। [ अब टोकाकार मुनिराज जिनेन्द्र देव की भक्ति की प्रेरणा देते हुए दो कलश काव्य कहते हैं-] (३०६) श्लोकार्थ-देह समूहरूपी वृक्ष पंक्ति से जो भयप्रद है, दुःख परंपरा रूपी जंगली पशुओं से जो व्याप्त है, अति कराल कालरूपी अग्नि जहां पर सबका भक्षण कर रही है, जिसमें बुद्धिरूपी जल सूख रहा है और जो दर्शन मोह से सहित जीवों के लिए नाना दुर्नयरूपी मार्गों से अत्यन्त दुर्गम है ऐसे इस संसाररूपी बिकट वन में जैन दर्शन ही एक शरण है । भावार्थ-मिथ्यात्व से ग्रसित हुए प्राणियों के लिए इस संसार में एक जन धर्म ही परम शरण है, अन्य कुछ नहीं है । * यहां कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
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