SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६५ ( शार्दूलविक्रीडित ) लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभोस्तं शंखध्यनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् । स्तोतु के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा वा पुनः जाने तत्स्तवनककारगमहं भक्तिजिनेत्युत्सुका ॥३०७॥ णियभावणाणिमित्त, मए कदं णियमसारणामसुदं । णच्चा जिणोवदेसं, पुवावरदोसणिम्मुक्कं ॥१७॥ निजभावनानिमित्तं मया कृतं नियमसारनामश्रुतम् । ज्ञात्वा जिनोपदेशं पूर्वापरदोषनिमुक्तम् ॥१८७।। जिनमें विरोध पूर्व पर ले कभी नहीं । न जिनोपदेन मेंने जानकर के हो ।। तिज अात्म भावना को भाने के लिये ही । इस नियमसार नामक श्रुत को रचा सही ।। 25७|| (३०७) श्लोकार्थ-जिनप्रभु का यह ज्ञानरूपी गागेर लोकालोक कः म्यान है, जिन्होंने शंख की ध्वनि से अखिल-भमण्डल को कम्पित कर दिया था ऐमें उन श्री नेमिनाथ तीर्थश्वर का स्तवन करने के लिये तीन लोक में भी कोई मनाय अगवा देव समर्थ है ? फिर भी उनके स्तवन में कारण केवल एक जिनेन्द्र देव के प्रति अनि उत्सुक भक्ति ही है ऐसा मैं समझता हैं। भावार्थ-थी नेमि जिनेन्द्र देव की स्तुति करने के लिए यद्यपि में समर्थ नहीं हूं फिर भी उनके प्रति उत्कट भक्ति ही मुझे स्तुति करने में वाचालित कर रही है। गाथा १८७ अन्वयार्थ-[ पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं ] पूर्वापरदोष से रहित ऐसे [जिनोपदेशज्ञात्वा] जिनेन्द्र देव के उपदेश को जानकर [ मया ] मैंने [ निज भावना निमित्तं ] अपनी भावना के निमित्त [ नियमसार नामश्रुतं ] नियमसार नामक शास्त्र को [ कृतं ] कहा है।
SR No.090308
Book TitleNiyamsar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages573
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy